Board | UP Board |
Text book | NCERT |
Subject | Sahityik Hindi |
Class | 12th |
हिन्दी गद्य- | हरिशंकर परसाई // निन्दा रस |
Chapter | 7 |
Categories | Sahityik Hindi Class 12th |
website Name | upboarmaster.com |
UP Board Syllabus संक्षिप्त परिचय |
नाम | हरिशंकर परसाई |
जन्म | 1924 ई. |
जन्म स्थान – | जमानी ग्राम, इटारसी, मध्य प्रदेश |
कहानी-संग्रह | हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे , रानी नागफनी की कहानी |
उपन्यास | भूत के पाँव पीछे, बेईमान की परत, शिकायत मुझे भी है |
उपलब्धि | ‘वसुधा’ साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन व प्रकाशन, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ रचना पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता |
शिक्षा | आरम्भिक शिक्षा मध्य प्रदेश में, एम. ए. नागपुर विश्वविद्यालय से |
लेखन विधा | निबन्ध, कहानी, उपन्यास |
भाषा | साहित्यिक खड़ी बोली |
शैली व्यंग्यात्मक व विवेचनात्मक | साहित्य में स्थान परसाई जी अपनी मौलिक एवं अर्थपूर्ण व्यंग्य रचनाओं के लिए सदैव हिन्दी-साहित्य में स्मरण किए जाएंगे। |
मृत्यु | 1995 ई. |
जीवन परिचय तथा साहित्यिक उपलब्धियाँ
मध्य प्रदेश में इटारसी के निकट जमानी नामक स्थान पर हिन्दी के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त, 1924 को हुआ। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मध्य प्रदेश में हुई। नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. करने के बाद इन्होंने कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य किया, लेकिन साहित्य
सृजन में बाधा का अनुभव करने पर इन्होंने नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन प्रारम्भ किया। इन्होंने प्रकाशक एवं सम्पादक के तौर पर जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका का स्वयं सम्पादन और प्रकाशन किया, जो बाद में आर्थिक कारणों से बन्द हो गई। हरिशंकर परसाई जी साप्ताहिक
हिन्दुस्तान, धर्मयुग तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखते रहे। 10 अगस्त, 1995 को यह यशस्वी साहित्यकार परलोकवासी हो गया।
साहित्यिक सेवाएँ
व्यक्ति और समाज के नैतिक एवं सामाजिक दोषों पर मार्मिक प्रहार करने वाले व्यंग्यप्रधान निबन्धों के लेखन में अग्रणी, शब्द और उसके भाव के पारखी परसाई जी की दृष्टि, लेखन में बड़ी सूक्ष्मता के साथ उतरती थी। साहित्य-सेवा के लिए इन्होंने नौकरी को भी त्याग दिया। वर्षों तक आर्थिक विषमताओं को झेलते हुए भी ये ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका का प्रकाशन एवं सम्पादन करते रहे। पाठकों के लिए हरिशंकर परसाई एक जाने-माने और लोकप्रिय लेखक थे। . .
कृतियाँ
परसाई जी ने अनेक विषयों पर रचनाएँ लिखीं। इनकी रचनाएँ देश की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इन्होंने कहानी, उपन्यास, निबन्ध आदि सभी विधाओं में लेखन-कार्य किया। परसाई जी की रचनाओं का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है-
कहानी-संग्रह हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे।
उपन्यास रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज।
निबन्ध-संग्रह तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमान की परत, पगडण्डियों का जमाना, सदाचार का ताबीज, शिकायत मुझे भी है और अन्त में ठिठुरता गणतन्त्र, विकलांग श्रद्धा का दौर।
भाषा-शैली
परसाई जी ने क्लिष्ट व गम्भीर भाषा की अपेक्षा व्यावहारिक अर्थात् सामान्य बोलचाल की भाषा को अपनाया, जिसके कारण इनकी भाषा में सहजता, सरलता व प्रवाहमयता का गुण दिखाई देता है। इन्होंने अपनी रचनाओं में छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग किया है, जिससे रचना में रोचकता का पुट आ गया है। इस रोचकता को बनाने के लिए परसाई जी ने उर्दू व अंग्रेजी भाषा के शब्दों तथा कहावतों एवं मुहावरों का बेहद सहजता के साथ प्रयोग किया है, जिसने इनके कथ्य की प्रभावशीलता को दोगुना कर दिया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में मुख्यत: व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया और उसके माध्यम से समाज की विभिन्न कुरीतियों पर करारे व्यंग्य किए।
हिन्दी साहित्य में स्थान
हरिशंकर परसाई हिन्दी-साहित्य के एक प्रतिष्ठित व्यंग्य लेखक
थे। मौलिक एवं अर्थपूर्ण व्यंग्यों की रचना में परसाई जी सिद्धहस्त थे। हास्य एवं व्यंग्यप्रधान निबन्धों की रचना करके इन्होंने हिन्दी साहित्य के एक विशिष्ट अभाव की पूर्ति की। इनके व्यंग्यों में समाज एवं व्यक्ति की कमजोरियों पर तीखा प्रहार मिलता है। आधुनिक युग के व्यंग्यकारों में उनका नाम सदैव स्मरणीय रहेगा।
पाठ का सारांश
प्रस्तुत निबन्ध निन्दा रस’ निन्दा कर्म में तल्लीन रहने वाले निन्दकों के स्वभाव व प्रकृति पर कटाक्ष करता हुआ एक व्यंग्यात्मक निबन्ध है। इस निबन्ध में लेखक ने निन्दकों के निन्दक बनने के कारण, उनसे बचने के उपाय व उनके विभिन्न प्रकारों पर विस्तारपूर्वक चर्चा की है, साथ ही निबन्ध में निन्दकों को निन्दा करने से प्राप्त होने वाली आत्मसन्तुष्टि व उनकी निन्दा कर्म में शुद्ध चित्त से तल्लीनता की भी अभिव्यक्ति की गई है।
ईर्ष्यालु व्यक्ति से सतर्कता
लेखक से मिलने उसका मित्र ‘क’ उसके घर आता है, जिसकी तुलना वह धृतराष्ट्र से करते हुए कहता है कि कुछ व्यक्ति ईर्ष्या-द्वेष की भावना रखते हुए निन्दा करते हैं। उन्हें जब कभी भी मौका मिलता है, वे बाहरी रूप से स्नेह दिखाते हुए अन्धे धृतराष्ट्र की भाँति प्राणघातक प्रहार अर्थात् निन्दा करना आरम्भ कर देते हैं। ऐसे निन्दकों से सदैव सतर्क रहना चाहिए और जब भी उनसे मिलें, तो संवेदनाओं को हृदय से निकालकर केवल पुतले रूपी शरीर से ही मिलना चाहिए।
अकारण झुठ बोलने व निन्दा करने की प्रवत्ति
लेखक कहता है कि कुछ व्यक्तियों का स्वभाव ही बिना किसी उद्देश्य के झूठ बोलना होता है। झूठ उनके मुख से बिना प्रयास किए सहज भाव से निकल जाता है। लेखक का मित्र भी इसी प्रवृत्ति का है। अपनी झुठ बोलने व निन्दा करने की प्रवृत्ति के कारण वह लेखक से मिलते ही ‘ग’ व्यक्ति की निन्दा प्रारम्भ कर देता है। उसके कथनों को सुनकर लेखक अचम्भित होकर उसके द्वारा स्वयं की, की गई निन्दा के विषय में सोचने लगता है।
विरोधियों की निन्दा सुनकर प्रसन्न होना
लेखक अपने मित्र की निन्दा कर्म में दक्षता को देखकर उससे अपने विरोधियों की निन्दा करवाने के उपरान्त अत्यधिक प्रसन्नता की अनुभति करता है। अपने विरोधियों की निन्दा सुनने के पश्चात् लेखक के मन में अपने निन्दक मित्र के प्रति उत्पन्न राग-द्वेष के भाव समाप्त हो जाते हैं, जिससे उसे अत्यधिक सन्तोष व आत्मसन्तुष्टि की अनुभूति होती है।
निन्दा सर्वोत्तम धर्म
लेखक का मानना है कि निन्दा कर्म के तल्लीन निन्दकों की तल्लीनता ईश्वर भक्ति में बैठे भक्तों से भी अधिक है। उनके समान अपने में एकाग्रता के दर्शन होना दर्लभ है। जिस प्रकार धर्मप्रचारक बिना किसी द्वेष-भाव के धर्म का प्रचार करते हैं, उसी प्रकार कुछ निन्दक शुद्धभाव से निन्दा कर्म में संलिप्त रहते हैं। उनके लिए निन्दा कर्म ही सर्वोत्तम धर्म होता है, जिसके विकास में निष्पक्ष भाव से आगे बढ़ते जाते हैं और समय आने पर अपने परिचितों की निन्दा भी उसी भाव। से करते हैं, जैसे अन्य व्यक्तियों की। निन्दा कर्म उनके लिए जीवनौषधि का कार्य करती है।
व्यवसाय रूपी निन्दा कर्म
लेखक कहता है कि व्यापारिक संघों के समान ही निन्दकों के भी विभिन्न संघ हैं। जहाँ संघ के सदस्य इधर-उधर से खबरें लाकर संघ के प्रधान को देते हैं, जिन्हें मिलाकर वह निन्दा रूपी वस्तु को बनाता है और अपने सदस्यों को देखकर उन्हें निन्दा के कार्य में प्रवृत्त करता है।
निन्दक की दयनीय स्थिति
लोक सेवा के भाव से की जाने वाली निन्दा, ईर्ष्या-द्वेष के भाव से की जाने वाली निन्दा से श्रेयष्कर है। ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दक सदैव दसरों की प्रगति से कुण्ठित होकर भीतर-ही-भीतर दु:खी होता रहता है। ऐसे निन्दकों को किसी प्रकार का दण्ड देने की भी आवश्यकता नहीं होती, अपित दूसरों की प्रगति से दु:खी होकर उन्हें स्वत: ही दण्ड मिल जाता है।
हीनता : निन्दा का उद्गम भाव
लेखक का मानना है कि निन्दा करने वाले लोगों में हीनता की भावना होती है। वे हीन भावना के शिकार होते हैं। अपनी हीनता को छिपाने के लिए ही वे दूसरों की निन्दा करते हैं। इसी प्रवृत्ति के
कारण उनमें अकर्मण्यता रच-बस जाती है। इतना ही नहीं, कुछ लोग तो निन्दा को अपनी पूँजी समझने लगते हैं। जिस प्रकार एक व्यापारी अपनी पूँजी के प्रति अत्यधिक मोह रखता है और उससे लाभ प्राप्त करता है, उसी प्रकार कुछ निन्दक निन्दा को पूँजी मान उससे अत्यधिक लगाव रखते हैं और उससे लाभ प्राप्ति की उम्मीद भी करते हैं। उन्हें लगता है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की निन्दा करके उसे पदच्युत कर उस स्थान पर स्वयं स्थापित हुआ जा सकता है, लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है।
निन्दकों का दोहरा व्यक्तित्व
निन्दक सदैव दूसरों से सदाचरण अपनाने की इच्छा रखते हैं, किन्तु स्वयं उससे दूरी बनाए रखते हैं। लेखक का मानना है कि वे जिस कार्य को करने में अक्षम होते हैं, उसे करने के लिए सदैव दसरों को मना करते हैं, क्योंकि वह उनके कुण्ठित व्यक्तित्व को ठेस पहुंचाता है। उनमें हीनता के भाव को पैदा करता है। इस हीनता के भाव को दूर करने के लिए ही वह निन्दा करने लगता है।
गद्यांशों पर अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्न उत्तर
- ऐसे मौके पर हम अक्सर अपने पुतले को अँकवार में दे देते हैं।
‘क’ से क्या मैं गले मिला? क्या मुझे उसने समेटकर कलेजे से लगा लिया? हरगिज नहीं। मैंने अपना पुतला ही उसे दिया। पुतला
इसलिए उसकी भुजाओं में सौंप दिया कि मुझे मालूम था कि मैं
धृतराष्ट्र से मिल रहा हूँ। पिछली रात को एक मित्र ने बताया कि
‘क’ अपनी ससुराल आया है और ‘ग’ के साथ बैठकर शाम को
दो-तीन घण्टे तुम्हारी निन्दा करता रहा। इस सूचना के बाद जब
आज सबेरे वह मेरे गले लगा तो मैंने शरीर से अपने मन को
चुपचाप खिसका दिया और निःस्नेह, कँटीली देह उसकी बाहों में
छोड़ दी। भावना के अगर काँटे होते, तो उसे मालूम होता है कि वह नागफनी को कलेजे से चिपटाए है। छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे, तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है? इसके लेखक का नाम भी लिखिए।
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश ‘निन्दा रस पाठ से लिया गया है, इसके लेखक का नाम हरिशंकर परसाई’ है।
(ii) ईया-द्वेष की भावनाओं से युक्त मित्र से कैसे गले मिलना चाहिए।
उत्तर ईर्ष्या-द्वेष की भानवाओं से युक्त मित्र यदि गले मिले तो उससे संवेदना शून्य, भावहीन होकर ही गले मिलना चाहिए, क्योंकि गले मिलने के लिए जिन भावनाओं और संवेदनाओं की आवश्यकता होती है वे भावनाएँ ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं में दब जाती हैं। अतः ऐसे मित्रों से सावधान रहना। चाहिए।
(iii) लेखक अपने मित्र ‘क’ से किस प्रकार गले मिला?
उत्तर जब लेखक को अपने किसी अन्य मित्र से यह ज्ञात होता है कि मित्र ‘क’ किसी ‘ग’ नाम के व्यक्ति के साथ बैठकर उसकी निन्दा करता है, तब लेखक उससे भावहीन व संवेदनाहीन होकर ही गले मिलता है।
(iv) ‘छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे, तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए’। से लेखक का क्या अभिप्राय है?
उत्तर लेखक कहता है कि जिस प्रकार धृतराष्ट्र ने ईर्ष्या-द्वेष के कारण भीम के पुतले को भीम समझकर नष्ट कर दिया था, उसी प्रकार धृतराष्ट्र के समान छली एवं कपटी व्यक्ति तुमसे गले मिले तो भावनाओं एवं शून्य रहित होकर पुतले के समान ही गले लगाना चाहिए।
(v) ‘छल एवं देह’ शब्दों के क्रमशः पर्यायवाची लिखिए।
उत्तर छल-कपट धोखा देह-शरीर, गाता
- कुछ लोग बड़े निर्दोष मिथ्यावादी होते हैं। वे आदतन, प्रकृति के वशीभत झूठ बोलते हैं। उनके मुख से निष्प्रयास, निष्प्रयोजन झूठ ही निकलता है। मेरे एक रिश्तेदार ऐसे हैं। वे अगर बम्बई (मुम्बई) जा रहे हैं और उनसे पूछे, तो वह कहेंगे, ‘कलकत्ता (कोलकाता) जा रहा हँ।’ ठीक बात उनके मुँह से निकल ही नहीं सकती। ‘क’ भी बडा निर्दोष, सहज-स्वाभाविक मिथ्यावादी है। अद्भुत है मेरा मित्र। उसके पास दोषों का केटलॉग है। मैंने सोचा कि जब वह परिचित की निन्दा कर रहा है, तो क्यों न मैं लगे हाथ विरोधियों की
गत, इसके हाथों करा लूँ। मैं अपने विरोधियों का नाम लेता गया और वह उन्हें निन्दा की तलवार से काटता चला। जैसे लकड़ी चीरने की आरा मशीन के नीचे मजदूर लकड़ी का लट्ठा खिसकाता जाता है। और वह चिरता जाता है, वैसे ही मैंने विरोधियों के नाम एक-एक कर । खिसकाए और वह उन्हें काटता गया। कैसा आनन्द था। दुश्मनों को रण-क्षेत्र में एक के बाद एक कटकर गिरते हुए देखकर योद्धा को। ऐसा ही सुख होता होगा।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) निर्दोष मिथ्यावादी लोग कौन होते हैं?
उत्तर जिन लोगों को बिना किसी प्रयोजन तथा बिना किसी प्रयास के झूठ बोलने की। आदत होती है, उन्हें लेखक ने निर्दोष मिथ्यावादी बताया है। ऐसे लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि बिना किसी कारण के उनके मुँह से झूठ स्वतः ही निकल जाता है।
(ii) लेखक अपने मित्र ‘क’ की तुलना किससे करता है?
उत्तर लेखक अपने मित्र ‘क’ की तुलना अपने एक ऐसे रिश्तेदार से करते हैं, जो कभी भी सत्य नहीं बोलता है, यदि उस रिश्तेदार से एक सामान्य सा प्रश्न किया जाए कि तुम कहाँ जा रहे हो, तो वह कभी भी सही स्थान का नाम नहीं। बताता है, क्योंकि उसे झूठ बोलने की स्वभावगत आदत है। ।
(iii) लेखक का निन्दक मित्र उसके विरोधियों की निन्दा किस प्रकार करता है?
उत्तर जिस प्रकार कोई मजदूर लकड़ी काटने वाली आरा मशीन के सामने लट्ठा खिसकाता जाता है और मशीन लकड़ी को चीरती जाती है ठीक उसी प्रकार लेखक का निन्दक मित्र उसके विरोधियों को अपनी निन्दा रूपी मशीन से चीरता चला गया।
(iv) लेखक अपने विरोधियों की निन्दा सुनकर किस प्रकार आनन्दित होता है।
उत्तर लेखक अपने विरोधियों की निन्दा सनकर उसी प्रकार आनन्दित होता है, जिस प्रकार रण-भूमि में योद्धा को अपने दुश्मनों को एक के बाद एक कटता हुआ देखकर आत्म सन्तोष एवं आनन्द मिलता है।
(v) ‘स्वाभाविक’ एवं ‘निर्दोष’ शब्दों में क्रमशः प्रत्यय एवं उपसर्ग छाँटकर । लिखिए।
उत्तर स्वाभाविक – इक (प्रत्यय) निर्दोष-निर् (उपसर्ग)
- मेरे मन में गत रात्रि के उस निन्दक मित्र के प्रति मैल नहीं रहा। दोनों । एक हो गए। भेद तो रात्रि के अन्धकार में ही मिटता है, दिन के उजाले में भेद स्पष्ट हो जाते हैं। निन्दा का ऐसा ही भेद-नाशक अँधेरा होता है। तीन-चार घण्टे बाद, जब वह विदा हुआ, तो हम लोगों के मन में बड़ी शान्ति और तुष्टि थी। निन्दा की ऐसी ही महिमा है। दो-चार निन्दकों को एक जगह बैठकर निन्दा में निमग्न देखिए और तुलना । कीजिए उन दो-चार ईश्वर-भक्तों से जो रामधुन लगा रहे हैं। निन्दकों । की-सी एकाग्रता, परस्पर, आत्मीयता, निमग्नता भक्तों में दुर्लभ है। । इसलिए सन्तों ने निन्दकों को ‘आँगन कुटी छवाय’ पास रखने की । सलाह दी है।
दिए गए गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) अपने निन्दक मित्र के प्रति लेखक का व्यवहार किस प्रकार परिवर्तित हो गया?
उत्तर जब तक लेखक का निन्दक मित्र अपने परिचितों की निन्दा करता रहता है तब तक लेखक को उसका व्यवहार अच्छा नहीं लगता, किन्तु जैसे ही वह लेखक के विरोधियों को निन्दा रूपी मशीन से चीरना प्रारम्भ करता है, तो लेखक को बहुत ही आत्मसन्तोष प्राप्त होता है और लेखक का व्यवहार
अपने मित्र के प्रति परिवर्तित हो गया अर्थात विनम्र हो गया।
(ii) निन्दक प्रशंसक लोगों के मन को शान्ति एवं सन्तुष्टि कब प्राप्त होती
उत्तर निन्दा की वैचारिक समानता के कारण निन्दक प्रशंसक लोगों के मन शान्त एवं तृप्त हो जाते हैं तथा एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए जब वे एक-दूसरे से विदा होते हैं, तो उनके मन को बड़ी शान्ति एवं सन्तुष्टि प्राप्त होती है।
(iii) निन्दा कर्म में डूबे निन्दकों की तुलना लेखक ने किससे की है और क्यों ?
उत्तर निन्दा कर्म में डूबे निन्दकों की तुलना लेखक ने ईश्वर भक्ति में बैठे उपासकों से की है, क्योंकि जिस तल्लीनता के साथ निन्दक अपना निन्दा कर्म करते हैं वैसी तल्लीनता ईश्वर भक्ति में लीन भक्तों में भी नहीं पाई जा सकती है।
(iv) लेखक के अनुसार सन्तों ने निन्दक को अपने साथ रखने के लिए क्यों कहा है?
उत्तर निन्दकों की निन्दा कर्म में तल्लीनता, एकाग्रता और परस्पर शुद्ध स्नेह भाव से डूबे होने के स्वभाव के कारण ही सन्तों ने निन्दक को अपने साथ रखने के लिए कहा है।
–
(v) ‘आत्मीयता’ तथा ‘निमग्न’ शब्दों में क्रमशः प्रत्यय एवं उपसर्ग छाँटकरदेगा। लिखिए।
उत्तर आत्मीयता-ईय, ता (प्रत्यय) निमग्न-नि (उपसर्ग)
- कुछ ‘मिशनरी’ निन्दक मैंने देखे हैं। उनका किसी से बैर नहीं, द्वेष
नहीं। वे किसी का बुरा नहीं सोचते। पर चौबीसों घण्टे वे निन्दा
कर्म में बहुत पवित्र भाव से लगे रहते हैं। उनकी नितान्त
निर्लिप्तता, निष्पक्षता इसी से मालूम होती है कि वे प्रसंग आने पर
अपने बाप की पगड़ी भी उसी आनन्द से उछालते हैं, जिस आनन्द
से अन्य लोग दुश्मन की। निन्दा इनके लिए ‘टॉनिक’ होती है। ट्रेड
यूनियन के इस जमाने में निन्दकों के संघ बन गए हैं। संघ के
सदस्य जहाँ-तहाँ से खबरें लाते हैं और अपने संघ के प्रधान को
सौंपते हैं। यह कच्चा माल हुआ, अब प्रधान उनका पक्का माल
बनाएगा और सब सदस्यों को ‘बहुजन हिताय’ मुफ्त बाँटने के
लिए दे देगा। यह फुरसत का काम है, इसलिए जिनके पास कुछ
और करने को नहीं होता, वे इसे बड़ी खूबी से करते हैं।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) लेखक मिशनरी निन्दक किसे कहता है?
उत्तर जो निन्दक केवल निन्दा कर्म को ही धर्म समझते हैं लेखक ने उन्हें मिशनरी निन्दक कहा है। ऐसे निन्दकों में किसी के प्रति कोई मनमटाव । अथवा शत्रता का भाव नहीं होता। ये पूरे शुद्ध भाव से दूसरों की निन्दा करने के कर्म में लगे रहते हैं।
(ii) लेखक के अनुसार निन्दक लोगों की निष्पक्षता का प्रमाण क्या है?
उत्तर लेखक के अनुसार निन्दक लोगों की निष्पक्षता का प्रमाण यह है कि वे अपने पिता की निन्दा भी उसी शुद्ध भाव के साथ करते हैं, जिस शुद्ध भाव से अपने दुश्मन की करते हैं, क्योंकि निन्दा कर्म के आगे वे किसी को बाधक नहीं बनने देना चाहते हैं।
(iii) संघ के सदस्य किस कार्य को परी लगन एवं निष्ठा के साथ करते हैं?
उत्तर लेखक के अनुसार निन्दकों ने अपने निन्दा के कारोबार को बढ़ाने के लिए संघ निर्मित कर लिए हैं। संघ के सदस्य इधर-उधर से निन्दा की खबरें लाकर संघ के प्रमुख को सौंपने का कार्य पूरी लगन एवं निष्ठा के साथ करते हैं।
(iv) वर्तमान समय में निन्दा का कार्य कौन व्यक्ति बड़ी कुशलता से सम्पन्न कर सकता है?
उत्तर निन्दा करने एवं सुनने के लिए व्यक्ति के पास फुरसत होनी चाहिए। वर्तमान समय में निन्दा का कार्य कर्महीन व्यक्ति ही कुशलता से कर सकते हैं, क्योंकि इस पवित्र कार्य को करने में वे निपुण होते हैं।
(v) ‘कच्चा’ एवं ‘दुश्मन’ शब्द के क्रमशः विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर शब्द विलोम शब्द कच्चा- पक्का दुश्मन – दोस्त।
- ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दा भी होती है, लेकिन इसमें वह मजा नहीं जो मिशनरी भाव से निन्दा करने में आता है। इस प्रकार का निन्दक बड़ा दु:खी होता है। ईर्ष्या-द्वेष से चौबीसों घण्टे जलता है और निन्दा का जल छिड़ककर कुछ शान्ति अनुभव करता है। ऐसा निन्दक बड़ा दयनीय होता है। अपनी अक्षमता से पीड़ित वह बेचारा दूसरे की सक्षमता के चाँद को देखकर सारी रात श्वान जैसा भौंकता है। ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दा करने वाले को कोई दण्ड देने की जरूरत नहीं है। वह निन्दक बेचारा स्वयं दण्डित होता है। आप चैन से सोइए और वह जलन के कारण सो नहीं पाता। उसे और क्या दण्ड चाहिए?
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) लेखक के अनुसार निन्दा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर लेखक के अनुसार निन्दा दो प्रकार की होती है, एक निन्दा ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित होकर की जाती है तथा दूसरी निन्दा मिशनरी भाव से की हाती है। इसमें निन्दक उसी भाव से निन्दा करता है, जैसे मिशनरी अपने धर्म का प्रचार करते
(ii) ईया-द्वेष से निन्दा करने वाले निन्दक की स्थिति कैसी होती है?
उत्तर ईा-द्वेष से की गई निन्दा में निन्दक बड़ा दुःखी रहता है क्योंकि वह चौबीसों घण्टे ईर्ष्या से जलता रहता है। वह दूसरे के सफलता रूपी चाँद को देखकर अपनी असफलता से दुःखी होकर श्वान की तरह सारी रात भौंकता रहता है। इस प्रकार ईर्ष्या-द्वेष से निन्दा करने वाले निन्दक की स्थिति बडी दयनीय होती है।
(iii) लेखक के अनुसार ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित होकर निन्द्रा करने वाले व्यक्ति किस प्रकार स्वयं को दण्डित करते हैं?
उत्तर ईर्ष्या-द्वेष से निन्दा करने वाले व्यक्ति ईर्ष्या की जलन में सारी रात जलते रहते हैं। अतः लेखक के अनुसार ईया-द्वेष से निन्दा करने वाले निन्दक स्वयं को दण्डित करते रहते हैं।
(iv) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस शैली का प्रयोग किया है?
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने व्यंग्यात्मक एवं विवेचनात्मक शैली का प्रयोग करते लागा की निन्दा करने की प्रवत्ति पर कटाक्ष करके उसे विभिन्न उदाहरणों। के द्वारा स्पष्ट किया है।
(v) ‘दयनीय’ और ‘दण्डित’ शब्दों में क्रमशः प्रत्यय छाँटकर लिखिए।
उत्तर ‘दयनीय’-अनीय (प्रत्यय) दण्डित-इस (प्रत्यय)
निन्दा का उद्गम ही हीनता और कमजोरी से होता है। मनुष्य अपनी हीनता से दबता है। वह दूसरों की निन्दा करके ऐसा अनुभव करता है कि वे सब निकृष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है। उसके अहं की इससे तुष्टि होती है। बड़ी लकीर को कुछ मिटाकर छोटी लकीर
बड़ी बनती है। ज्यों-ज्यों कर्म क्षीण होता जाता है, त्यों-त्यों निन्दा
की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। कठिन कर्म ही ईर्ष्या-द्वेष और इनसे
उत्पन्न निन्दा को मारता है। इन्द्र बड़ा ईर्ष्यालु माना जाता है, क्योंकि वह निठल्ला है। स्वर्ग में देवताओं को बिना उगाया अन्न, बे बनाया
महल और बिन बोए फल मिलते हैं। अकर्मण्यता में उन्हें
अप्रतिष्ठित होने का भय बना रहता है, इसलिए कर्मी मनुष्यों से
उन्हें ईर्ष्या होती है। निन्दा कुछ लोगों की पूँजी होती है। बड़ा
लम्बा-चौड़ा व्यापार फैलाते हैं वे इस पूँजी से। कई लोगों की
प्रतिष्ठा ही दूसरों की कलंक-कथाओं के पारायण पर आधारित
होती है। बड़े रस-विभोर होकर वे जिस-तिस की सत्य कल्पित
कलंक-कथा सुनाते हैं और स्वयं को पूर्ण सन्त समझने की तुष्टि
का अनुभव करते हैं। आप इनके पास बैठिए और सुन लीजिए,
“बड़ा खराब जमाना आ गया। तुमने सुना? फलां और अमुक”
अपने चरित्र पर आँखें डालकर देखने की उन्हें फुरसत नहीं होती।
दिए गए गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) निन्दा का वास्तविक उद्गम मनुष्य की किस भावना से होता है?
उत्तर लेखक के अनुसार निन्दा का वास्तविक उद्गम मनुष्य की हीनता एवं कमजोरी की भावना से होता है। जब कोई व्यक्ति अपने अन्दर हीनता की भावना का या किसी क्षेत्र में असमर्थ या पीछे रहने की भावना का अनुभव करता है, तब वह अपनी हीनता की भावना को कम करने के लिए निन्दा करता है।
(ii) लेखक के अनुसार व्यक्ति में निन्दा करने की प्रवृत्ति कब बढ़ जाती है? ।
उत्तर लेखक के अनुसार जैसे ही व्यक्ति का कर्म क्षीण हो जाता है वैसे ही उसकी निन्दा करने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। इस प्रवृत्ति को समाप्त करने का एकमात्र उपाय कठिन कर्म ही है और इसके अभाव में यह प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती जाती है।
(iii) लेखक ने इन्द्र को देवताओं में सबसे बड़ा निन्दक क्यों कहा हैं?
उत्तर लेखक ने इन्द्र को उसकी अकर्मण्यता के कारण ही देवताओं में सबसे बड़ा निन्दक कहा है, क्योंकि उसे अपनी इसी अकर्मण्यता के कारण अप्रतिष्ठित होने का डर बना रहता है, इसलिए उनके मन में मनुष्यों के प्रति ईर्ष्या होती है।है।
(iv) निन्दक व्यक्ति दूसरे लोगों के दोषों को किस भाव से प्रकट करते हैं?
उत्तर निन्दक व्यक्ति दूसरे लोगों के दोषों को इस भाव से प्रकट करते हैं जैसे संसार को दोषमुक्त करने का एकमात्र दायित्व उन्हीं के कन्धों पर है और अपने दोषों । को देखने का उनके पास समय ही नहीं होता है।
(v) ‘अप्रतिष्ठित’ एवं ‘ईर्ष्यालु’ शब्दों में क्रमशः उपसर्ग एवं प्रत्यय छाँटकर लिखिए।
उत्तर अप्रतिष्ठित-‘अ (उपसर्ग) ईर्ष्यालु-आलु (प्रत्यय)