कक्षा 12 साहित्यिक हिंदी गद्य गरिमा अध्याय 2 जैनेन्द्र कुमार भाग्य और पुरुषार्थ हिंदी में
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UP Board Class 12 जैनेन्द्र कुमार भाग्य और पुरुषार्थ |
Board | UP Board |
Text book | NCERT |
Subject | Sahityik Hindi |
Class | 12th |
हिन्दी गद्य- | जैनेन्द्र कुमार // भाग्य और पुरुषार्थ |
Chapter | 2 |
Categories | Sahityik Hindi Class 12th |
website Name | upboarmaster.com |
संक्षिप्त परिचय जैनेन्द्र कुमार |
नाम | जैनेन्द्र कुमार |
जन्म | 1905 ई. |
जन्म स्थान | जिला अलीगढ़ के कौड़ियागंज नामक कस्बे में |
पिता का नाम | श्री प्यारेलाल |
माता का नाम | श्रीमती रामादेवी |
शिक्षा | मैट्रिक, उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय |
लेखन विधा | उपन्यास, कहानी, निबन्ध |
साहित्यिक पहचान | प्रसिद्ध विचारक, उपन्यासकार, कथाकार और निबन्धकार |
भाषा | सरल, स्वाभाविक तथा .. सीधी-सादी |
शैली | विचारात्मक, वर्णनात्मक तथा व्याख्यात्मक |
साहित्य में स्थान | जैनेन्द्र कुमार हिन्दी-साहित्य जगत् में एक श्रेष्ठ कथाकार व साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। |
मृत्यु | 1988 ई. |
जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ
प्रसिद्ध विचारक, उपन्यासकार, कथाकार और निबन्धकार जैनेन्द्र कुमार का जन्म 1905 ई. में जिला अलीगढ़ के कौड़ियागंज नामक कस्बे में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री प्यारेलाल और माता का नाम श्रीमती रामादेवी था। जैनेन्द्र जी के जन्म के दो वर्ष पश्चात् ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। माता एवं मामा ने इनका पालन-पोषण किया। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा ‘ऋषि ब्रह्मचार्याश्रम’ जैन गुरुकुल, हस्तिनापुर में हुई। इनका नामकरण भी
इसी संस्था में हुआ। आरम्भ में इनका नाम आनन्दीलाल था, किन्तु जब जैन गुरुकुल में अध्ययन के लिए इनका नाम लिखवाया गया, तब इनका नाम जैनेन्द्र कुमार रख दिया गया। 1912 ई. में इन्होंने गुरुकुल छोड़ दिया। 1919 ई. में इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पंजाब से उत्तीर्ण की। इनकी उच्च शिक्षा ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ में हुई। 1921 ई. में इन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और असहयोग आन्दोलन में सक्रिय हो गए।
1921 ई. से 1923 ई. के बीच जैनेन्द्र जी ने अपनी माता जी की सहायता से व्यापार किया, जिसमें इन्हें सफलता भी मिली। 1923 ई. में ये नागपुर चले गए और वहाँ राजनैतिक पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे। उसी वर्ष इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन माह के बाद छोड़ा गया। दिल्ली
लौटने पर इन्होंने व्यापार से स्वयं को अलग कर लिया और जीविकोपार्जन के लिए कलकत्ता (कोलकाता) चले गए। वहाँ से इन्हें निराश लौटना पड़ा। इसके बाद इन्होंने लेखन-कार्य आरम्भ किया। इनकी पहली कहानी 1928 ई. में ‘खेल’ शीर्षक से “विशाल भारत’ में प्रकाशित हुई। 1929 ई. में इनका पहला उपन्यास ‘परख’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिस पर ‘हिन्दुस्तानी अकादमी’ ने पाँच सौ रुपये का पुरस्कार प्रदान किया। 24 दिसम्बर, 1988 को इस महान् साहित्यकार का स्वर्गवास हो गया।
साहित्यिक सेवाएँ
जैनेन्द्र कुमार जी का साहित्य-सेवा क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत है। मौलिक कथाकार के रूप में ये जितने अधिक निखरे हैं, उतने ही निबन्धकार और विचारक के रूप में भी इन्होंने अपनी प्रतिभा का अद्भुत परिचय दिया है।
कृतियाँ
जैनेन्द्र जी मुख्य रूप से कथाकार हैं, किन्तु इन्होंने निबन्ध के क्षेत्र में भी यश अर्जित किया है। उपन्यास, कहानी और निबन्ध के क्षेत्रों में इन्होंने जिससाहित्य का निर्माण किया है, वह विचार, भाषा और शैली की दृष्टि से अनुपम है। इनकी कृतियों का विवरण इस प्रकार है ..
उपन्यास परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, विवर्त, सुखदा, व्यतीत, जयवर्धन, मुक्तिबोध।
कहानी-संकलन फाँसी, जयसन्धि, वातायन, नीलम देश की राजकन्या, एक रात, दो चिड़ियाँ, पाजेब।
निबन्ध-संग्रह प्रस्तुत-प्रश्न, जड़ की बात, पूर्वोदय, साहित्य का श्रेय । और प्रेय, मन्थन, सोच-विचार, काम, प्रेम और परिवार।
संस्मरण ये और वे।
अनुवाद मन्दाकिनी (नाटक), पाप और प्रकाश (नाटक), प्रेम में
भगवान (कहानी)।
भाषा-शैली ।
जैनेन्द्र जी की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा सीधी-सादी है, जो विषय के अनुरूप स्वयं बदलती रहती है। इनके विचार जिस स्थान पर जैसा स्वरूप धारण करते हैं, इनकी भाषा भी उसी प्रकार का स्वरूप धारण कर लेती है। यही कारण है कि गम्भीर स्थलों पर इनकी भाषा गम्भीर हो गई है। इनकी भाषा में संस्कृत शब्दों का प्रयोग अधिक नहीं हुआ है, किन्तु उर्दू, फारसी, अरबी, अंग्रेजी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। इन्होंने मुहावरों तथा कहावतों का प्रयोग यथास्थान किया है। इनके निबन्धों में विचारात्मक तथा वर्णनात्मक शैली के दर्शन होते हैं, साथ ही इनके कथा-साहित्य में व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग भी हुआ है। ..
हिन्दी साहित्य में स्थान
श्रेष्ठ उपन्यासकार, कहानीकार एवं निबन्धकार जैनेन्द्र कुमार अपनी चिन्तनशील विचारधारा तथा आध्यात्मिक एवं सामाजिक विश्लेषणों पर आधारित रचनाओं के लिए सदैव स्मरणीय रहेंगे। हिन्दी कथा-साहित्य के क्षेत्र में जैनेन्द्र कुमार का विशिष्ट स्थान है। हिन्दी-साहित्य जगत् में ये एक श्रेष्ठ साहित्यकार तथा युग-प्रवर्तक व मौलिक कथाकार के रूप में भी जाने जाते हैं। ..
पाठ का सारांश
प्रस्तुत निबन्य’भाग्य और पुरुषार्थ जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित है। इसमें लेखक ने भाग्य और पुरुषार्थ के महत्त्व को व्याख्यायित करते हुए दोनों के बीच सम्बन्ध को उजागर करने का प्रयास किया है।
भाग्य विधाता का दूसरा नाम
लेखक ने भाग्य और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि भाग्य और पुरुषार्थ अलग समझे जाते हैं, परन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। भाग्योदय शब्द में भाग्य को प्रधानता दी जाती है, स्वयं को नहीं, जबकि पुरुषार्थ में स्वयं को प्रधानता दी जाती है। इसलिए भाग्योदय पुरुषार्थ से स्वतन्त्र तत्त्व है। लेखक के अनुसार भाग्य, विधाता का ही दूसरा नाम है। जिस प्रकार ईश्वर सर्वकालिक और शाश्वत है, उसी प्रकार भाग्य भी सर्वकालिक और शाश्वत होता है। भाग्य का उदय हमारी (मनुष्य की) अपनी अपेक्षा (इच्छा) से होता है। भाग्योदय भी सूर्योदय की भाँति होता है। सूर्य का उदय नहीं होता। वह तो अपने स्थान पर स्थिर रहता है, पृथ्वी ही उसके आस-पास चक्कर लगाती है। पृथ्वी का मुँह जिस समय सूरज की ओर हो, वही समय उसके लिए सूर्योदय होता है। इसी प्रकार, मनुष्य को निरन्तर कर्म करते हुए स्वयं को भाग्य के सम्मुख ले जाना चाहिए, क्योंकि भाग्योदय के लिए कर्म करना आवश्यक है। लेखक का मानना है कि दुःख भगवान का वरदान है, क्योकि दुःख ही व्यक्ति को ईश्वर के निकट लाता है। दुःख में व्यक्ति कुछ क्षण के लिए अपने अहं भाव से मुक्त हो जाता है। इस अवस्था में ही उसे भगवत् कृपा की प्राप्ति होती है। विधाता की कृपा को पहचानना ही भाग्योदय है। मनुष्य का सारा पुरुषार्थ विधाता की कृपा प्राप्त करने तथा उसे पहचानने में ही है। विधाता की कृपा प्राप्त होते ही मनुष्य के अन्दर जो अहंकार का भाव विद्यमान होता है, वह मिट जाता है और उसका भाग्योदय हो जाता है।
अहं से विमुक्त होकर, भाग्य से संयुक्त होना
लेखक का मानना है कि जो लोग व्यर्थ प्रयास करते हैं तथा सफलता प्राप्त किए बिना ही रह जाते हैं, वह भाग्य को दोष देते हैं। दूसरी ओर कर्म में एक नशा होता है। कर्म का नशा चढ़ते ही मनुष्य भाग्य और ईश्वर को भूल जाता है। लेखक का मानना है कि पुरुषार्थ का अर्थ-पशु चेष्टा से भिन्न एवं श्रेष्ठ है।
पुरुषार्थ केवल हाथ-पैर चलाना नहीं है और न ही वह क्रिया का वेग एवं कौशल है। पुरुष का भाग्य देवताओं को भी पता नहीं होता है, क्योंकि पुरुष का भाग्य तो
उसके पुरुषार्थ से निर्धारित होता है। लेखक का मानना है कि पुरुष अपने भाग्य से तभी जुड़ता है, जब वह अपने अहं को त्याग देता है। लेखक के अनुसार, अकर्म का आशय सही अर्थों में निम्न स्तर का कर्म है। अकर्म का अर्थ ‘कर्म नहीं’ से नहीं लेना चाहिए। इसे ‘कर्म के अभाव’ से न जोड़ते हुए कर्तव्य के क्षय यानी कर्त्तव्य की स्थिति में पतन, किए जाने वाले कर्म में गिरावट, उसमें क्षय या पतन से सम्बन्धित माना है। वास्तव में व्यक्ति के अन्दर मौजूद अहं भाव ही इस अकर्म के लिए उत्तरदायी होता है। अतः आवश्यक है कि व्यक्ति अपने अहं को समाप्त करे, जिससे उसके कर्त्तव्य के स्तर में सकारात्मक परिवर्तन आए।
भाग्य की प्रवृत्ति व निवृत्ति का चक्र .
लेखक का मानना है कि जब मनुष्य भाग्य के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होकर पुरुषार्थ करता है, तो उसका पुरुषार्थ फल प्राप्ति की इच्छा से रहित हो जाता है और तब वह दिन-प्रतिदिन अधिक शक्तिशाली एवं बन्धन-विहीन होता जाता है। लेखक का मानना है कि केवल पुरुषार्थ को मान्यता देकर भाग्य की अवहेलना करने का आशय अपनी शक्ति के अहंकार में डूबकर अपने अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण सृष्टि को नकारना है। मनुष्य का अस्तित्व इस सृष्टि में नगण्य है। वह कुछ वर्षों का जीवन व्यतीत कर काल का ग्रास बन जाता है, परन्तु सृष्टि तब भी चलती रहती है। मनुष्य प्राय: भाग्य की प्रतीक्षा में स्वयं को कोसा करता है, क्योंकि वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि सामने आई स्थिति भी उसी (भाग्य) के प्रकाश से प्रकाशित होती है। उस प्रवृत्ति से वह रह-रहकर थक जाता है और निवृत्ति (सांसारिक सुखों से मुक्ति) चाहता है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वन्द्व से थका मारता है। इस संसार को कभी वह प्रेम भाव से चाहता है तो कभी दूसरे ही क्षण उसके हृदय में संसार के प्रति वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाता है और वह विनाश चाहने लगता है। प्रेम और घृणा की भावनाओं में फंस कर वह परेशान हो जाता है तथा उसके हाथ कुछ नहीं लगता। ऐसी अवस्था में ही जब वह अपने भाग्य के प्रति सम्मान भाव तथा कर्तव्यों का पूर्ण रूप से निर्वाह करते हुए पुरुषार्थ करेगा तो वही उसका सच्चा भाग्योदय कहलाएगा। वस्तुत: भाग्य एव पुरुषार्थ दोनों का संयोग ही मनष्य को सफलता की ऊँचाइयों तक पहुंचाने में सहायक होता है।
गद्यांशों पर अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्न उत्तर
प्रश्न-पत्र में गद्य भाग से दो गद्यांश दिए जाएंगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होगें
1 भाग्य को भी मैं इसी तरह मानता हूँ। वह तो विधाता का ही दूसरा नाम है। वे सर्वान्तर्यामी और सार्वकालिक रूप में हैं, उनका अस्त ही कब है। कि उदय हो। यानी भाग्य के उदय का प्रश्न सदा हमारी अपनी अपेक्षा से है। धरती का रुख सूरज की तरफ हो जाए, यही उसके लिए सूर्योदय है। ऐसे ही मैं मानता हूँ कि हमारा मुख सही भाग्य की तरफ हो जाए तो इसी को भाग्योदय कहना चाहिए। पुरुषार्थ को इसी जगह संगति है अर्थात् भाग्य को कहीं से खींचकर उदय में लाना नहीं, न अपने साथ ही ज्यादा
खींचतान करनी है। सिर्फ मुँह को मोड़ लेना है। मुख हम हमेशा अपनी तरफ रखा करते हैं। अपने से प्यार करते हैं, अपने ही को चाहते हैं। अपने को आराम देते हैं, अपनी सेवा करते हैं। दूसरों को अपने लिए मानते हैं, सब कुछ को अपने अनुकूल चाहते हैं। चाहते यह हैं कि हम पूजा और प्रशंसा के केन्द्र हों और दूसरे आस-पास हमारे इसी भाव में मँडराया करें। इस वासना से हमें छुट्टी नहीं मिल पाती।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) लेखक ने भाग्य को विधाता का दूसरा नाम क्यों बताया है? .
- उत्तर जिस प्रकार ईश्वर सबके हृदय की बात जानते हैं तथा प्रत्येक काल एवं स्थान पर विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार भाग्य भी हर समय विद्यमान रहता है। इसलिए लेखक ने भाग्य को विधाता का दूसरा नाम बताया है।
(ii) लेखक ने भाग्योदय की तुलना किससे की है और क्यों?
उत्तर लेखक ने भाग्योदय की तुलना सूर्योदय से की है, जिस प्रकार सूर्य का उदय नहीं होता है, वह तो अपने स्थान पर स्थिर रहता है। पृथ्वी का उसके आस-पास चक्कर लगाते हुए उसका मुँह सूर्य की ओर हो जाता है, तब हम उसे सर्योदय कहते हैं। ठीक इसी प्रकार जिस समय निरन्तर कर्म करते हुए मनुष्य का मख भाग्य की ओर हो तो उसे भाग्योदय कहना चाहिए।
(iii) लेखक के अनुसार भाग्योदय के लिए क्या आवश्यक होता है?
उत्तर लेखक के अनुसार भाग्योदय के लिए पुरुषार्थ अर्थात् अपने पौरुष के साथ संगति बैठाना आवश्यक होता है, क्योंकि भाग्योदय के लिए अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर स्वयं को कर्म क्षेत्र से जोड़ना होता है।
(iv) व्यक्ति किस प्रकार अपने स्वार्थों के वशीभूत हो जाते हैं?
- उत्तर व्यक्ति जब अपने नजरिए से जीवन को देखते हैं, स्वयं से प्रेम करते हैं, अपने लिए जीते हैं, अपनी ही सेवा में लगे रहते हैं तथा दूसरे व्यक्तियों को अपना सेवक मानते हुए सभी कुछ अपने अनुकूल बनाना चाहते हैं। इस प्रकार मनुष्य स्वार्थों के वशीभूत हो जाते हैं।
(v) ‘भाग्योदय’, ‘सूर्योदय में सन्धि-विच्छेद करते हुए सन्धि का नाम भी लिखिए।
उत्तर भाग्योदय = भाग्य + उदय (सन्धि विच्छेद) गुण सन्धि
सूर्योदय = सूर्य + उदय (सन्धि विच्छेद) गुण सन्धि
- इसलिए मैं मानता हूँ कि दुःख भगवान का वरदान है। अहं और किसी औषध से गलता नहीं, दुःख ही भगवान का अमृत है। वह क्षण सचमुच ही भाग्योदय का हो जाता है, अगर हम उसमें भगवान की कृपा को पहचान लें। उस क्षण यह सरल होता है कि हम अपने से मुड़ें और भाग्य के सम्मुख हों। बस इस सम्मुखता की देर है कि भाग्योदय हुआ रखा है। असल में उदय उसका क्या होना है, उसका आलोक तो कण-कण में व्याप्त सदा-सर्वदा है ही। उस आलोक के प्रति खुलना हमारी आँखों का हो जाए बस उसी की प्रतीक्षा है। साधना और प्रयत्न सब उतने मात्र के लिए हैं। प्रयत्न और पुरुषार्थ का कोई दूसरा लक्ष्य मानना बहुत बड़ी भूल करना होगा, ऐसी चेष्टा
- व्यर्थ सिद्ध होगी।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) लेखक ने दुःख को ईश्वर का वरदान क्यों माना है?
उत्तर लेखक दुःख को ईश्वर का वरदान मानते हैं, क्योंकि सफलता प्राप्त करने के पश्चात् मनुष्य के भीतर अहंकार का भाव उत्पन्न हो जाता है. जो किसी अन्य औषधि से समाप्त नहीं होता। इसके लिए दुःख ही सबसे बड़ी औषधि है, जो ईश्वर के अमृत के समान होती है।
(ii) लेखक के अनुसार व्यक्ति के भाग्योदय का क्षण कौन-सा होता है?
उत्तर जब किसी व्यक्ति के जीवन में दुःख आता है, तो वह अहंकार के भाव से मुक्त होकर, स्वार्थ भावों से ऊपर उठकर निरन्तर कर्म करते हुए ईश्वर के समीप आता है। लेखक के अनुसार यही व्यक्ति के भाग्योदय का क्षण
होता है।
(iii) लेखक के अनुसार पुरुषार्थ का क्या उद्देश्य होता है?
उत्तर लेखक के अनुसार मनुष्य के सभी तप एवं प्रयत्न, पराक्रम, पौरुष अपने भाग्योदय के लिए ही होते हैं। इसलिए मनुष्य को निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए। कर्म की प्रवृत्ति ही भाग्योदय में सहायक है। अतः पुरुषार्थ का उद्देश्य भी यही है।
(iv) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर बल दिया है?
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने दुःख के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए
मनुष्य की निरन्तर कर्म करने की प्रवृत्ति पर बल दिया है।
(v) ‘प्रयत्न, सम्मुखता’ शब्दों के क्रमशः उपसर्ग एवं प्रत्यय छाँटकर
लिखिए।
उत्तर प्रयत्न – प्र (उपसर्ग) सम्मुखता – ता (प्रत्यय)
- सच ही अधिकांश यह होता है कि उनका और भाग्य का सम्बन्ध उल्टा होता है। भाग्य के स्वयं उल्टे-सीधे होने का तो प्रश्न ही । क्या है? कारण, उसकी सत्ता सर्वत्र व्याप्त है। वहाँ दिशाएँ तक .समाप्त है। विमुख और सम्मुख जैसा वहाँ कुछ सम्भव ही नहीं ।है। तब होता यह है कि ऐसे निष्फल प्रयत्नों वाले स्वयं उससे
उल्टे बने रहते हैं अर्थात् अपने को ज्यादा गिनने लग जाते हैं,
शेष दूसरों के प्रति अवज्ञा और उपेक्षाशील हो जाते हैं। कर्म में
अधिकांश यह दोष रहता है, उसमें एक नशा होता है। नशा चढ़ने
पर आदमी भाग्य और ईश्वर को भूल जाता है और विनय की
आवश्यकता को भी भूल जाता है। यूं कहिए कि जान-बूझकर
भाग्य से अपना मुँह फेर लेता है। तब, उसे सहयोग न मिले तो
उसमें विस्मय ही क्या है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए। ..
(i) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने किस बात पर प्रकाश डाला है?
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने निरर्थक प्रयत्न करते मनुष्य एवं उसके भाग्य पर प्रकाश डाला है कि जो व्यक्ति व्यर्थ के प्रयास करते रहते हैं, ये कभी सफलता प्राप्त नहीं कर पाते और अन्त में अपने भाग्य का दोष देने लगते हैं।
(ii) निरर्थक प्रयास करने वाले मनुष्य किस प्रकार भाग्य से उल्टे बने रहते हैं?
उत्तर निरर्थक प्रयास करने वाले मनुष्य अपने आप को अधिक महत्व देने लगते हैं. अपनी योग्यता को अधिक महत्त्व देते हुए दूसरों की अवहेलना करने लगते हैं। इस प्रकार वे सदैव अपने भाग्य के उल्टे बने रहते हैं।
(iii) लेखक के अनुसार मनुष्य कर्म के पश्चात् किस कारण अहंकार भाव से भर जाता है?
उत्तर कर्म में दोष के रूप में एक नशा विद्यमान होता है, जिसके कारण मनुष्य कर्म के पश्चात् अहंकार भाव से भर जाता है और यह अंहकार का भाव भाग्य एवं ईश्वर से दूर कर देता है।
(iv) लेखक के अनुसार व्यक्ति के भाग्योदय में बाधक तत्त्व क्या है?
उत्तर लेखक के अनुसार व्यक्ति के भाग्योदय में अहंकार भाव बाधक होता है. क्योंकि ग्यक्ति में अहंकार भाव आने पर उसका विनय भाव समापा हो जाता है. जिसके कारण भाग्य उससे मुँह फेर लेता है।
(v) ‘उल्टे-सीधे शब्ब में समास विग्रह करके उसमें प्रयुक्त समास का भेद भी बताइए।
उत्तर छार ‘उल्टे और सीधे’ (समास विग्रह)। यह इन्द्व समास का भेद है।
- पुरुषार्थ वह है, जो पुरुष को सप्रयास रखे, साथ ही सहयुक्त भी स्खे। यह जो सहयोग है, सच में पुरुष और भाग्य का ही है।
पुरुष अपने अहं से वियुक्त होता है, तभी भाग्य से संयुक्त होता
है। लोग जब पुरुषार्थ को भाग्य से अलग और विपरीत करते हैं
तो कहना चाहिए कि वे पुरुषार्थ को ही उसके अर्थ से विलग
और विमुख कर देते हैं। पुरुष का अर्थ क्या पशु का ही अर्थ है?
बल-विकास तो पशु में ज्यादा होता है। दौड़-धूप निश्चय ही
पशु अधिक करता है, लेकिन यदि पुरुषार्थ पशुचेष्टा के अर्थ से
कुछ भिन्न और श्रेष्ठ है तो इस अर्थ में कि वह केवल हाथ-पैर
चलाना नहीं है, न क्रिया का वेग और कौशल है, बल्कि वह
स्नेह और सहयोग भावना है। सूक्ष्म भाषा में कहें तो उसकी
अकर्तव्य-भावना है।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक कौन
उत्तर प्रस्तुत गद्यांश भाग्य और पुरुषार्थ पाठ से लिया गया है तथा इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं।
(ii) . पुरुषार्थ को भाग्य से अलग क्यों नहीं किया जा सकता है?
उत्तर लेखक के अनुसार जहाँ पुरुष होता है वहाँ कर्मशीलता होती है और जहाँ कर्मशीलता है, वहाँ भाग्य होता है। इसलिए पुरुषार्थ से भाग्य को अलग करने का अर्थ पुरुषार्थ को उसके अर्थ से अलग करना होता है। अतः पुरुषार्थ को भाग्य से अलग नहीं किया जा सकता।
(iii) पुरुषार्थ एवं बल में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर पुरुषार्थ एवं बल में कोई सम्बन्ध नहीं होता है। बल क्रिया का वेग एवं कौशल होता है जो पशुओं में अधिक होता है, किन्तु पुरुषार्थ, स्नेह एवं सहयोग की भावना के साथ अन्य व्यक्तियों के साथ अन्तःक्रिया में संलग्न होता है।
(iv) पुरुषार्थ के लिए लेखक ने क्या आवश्यक माना है?
उत्तर लेखक के अनुसार, पुरुषार्थ के लिए आवश्यक है- अहंकार का त्याग तथा स्नेह एवं सहयोग के साथ मिल-जुलकर कार्य करना।
(v) ‘हाथ-पैर में समास विग्रह करके इसमें प्रयुक्त समास का भेद भी लिखिए।
उत्तर हाथ और पैर (समास विग्रह)। यह द्वन्द्व समास का भेद है।
- इच्छाएँ नाना है और नानाविधि हैं और उसे प्रवृत्त रखती हैं। उस प्रवृत्ति से वह रह-रहकर थक जाता है और निवृत्ति चाहता है। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वन्द्व से थका मारता है। इस संसार को अभी राग-भाव से वह चाहता है कि अगले क्षण उतने ही विराग भाव से वह उसका विनाश चाहता है। पर राग-द्वेष की वासनाओं से अन्त में झुंझलाहट और छटपटाहट ही उसे हाथ आती है। ऐसी अवस्था में उसका सच्चा भाग्योदय कहलाएगा अगर वह नत-नम्र होकर भाग्य को सिर आँखों लेगा और प्राप्त कर्त्तव्य में ही अपने पुरुषार्थ की इति मानेगा।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रवृत्ति-निवृत्ति के चक्र में फँसे मनुष्य क्यों थक जाता है?
उत्तर मनुष्य की विविध इच्छाएँ एवं आवांक्षाएँ होती हैं। वह अपनी इच्छा पूर्ति के लिए आसक्त होकर कार्य करते हुए थक जाता है और तब वह सांसारिक सुखों को त्यांगना चाहता है। इस तरह संघर्ष करते हुए प्रवृत्ति-निवृत्ति का चक्र मनुष्य को थका देता है।
(ii) प्रेम और ईर्ष्या की वासनाओं में पड़कर व्यक्ति की स्थिति कैसी हो जाती है।
‘उत्तर गनुष्य इस संसार से प्रेम भाव रखते हुए उसे चाहता है, किन्तु अगले ही क्षण ईर्ष्या के वशीभूत होकर इस संसार को नष्ट करना चाहता है। इस प्रकार प्रेम और ईर्ष्या की वासनाओं में पत्रकार व्यक्ति हुँझलाहट एवं छटपटाहट की स्थिति में आ जाता
(iii) लेखक के अनुसार मनुष्य का सच्चा भाग्योदय कब सम्भव है?
उतर जब मनुष्य नाता से झुककर कर्तव्यों के निर्वाह में पुरुषार्थ को पूर्ण मानेगा, तभी लेखक के अनुसार मनुष्य का सच्या भाग्योदय सम्भव है। जिससे मनुष्य सफलता की ऊँचाइयों को छू सकता है।
(iv) “प्रवृत्ति, राग’ शब्दों के क्रमशः विलोम शब्द लिखिए।
उत्तर प्रवृत्ति – निवृत्तिा राग – विराग।
(v) ‘राग-द्वेष’ का समास विग्रह करके समास का भेद भी लिखिए।
उत्तर राग और द्वेष (समास विब्रह)। यह द्वन्द्व समास का भेद है।
(vi) लेखक ने जन जीवन की तुलना नदी के प्रवाह से क्यों की है?
उत्तर लेखक ने जन जीवन की तुलना नदी के प्रवाह से की है, क्योंकि जिस प्रकार एक नदी निरन्तर गतिशील रहकर बीच-बीच में डेल्टा का निर्माण करती जाती है, उसी प्रकार राष्ट्र के लोग अपने कार्य एवं श्रम के माध्यम से प्रगति .व उन्नति के अनेक पड़ावों का निर्माण करते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहते
(vii) ‘अजर-अमर’ का समास विग्रह करते हुए उसका भेद लिखिए।
उत्तर अजर और अमर (समास विग्रह)। यह द्वन्द्व समास का भेद है।
- राष्ट्र का तीसरा अंग जन की संस्कृति है। मनुष्यों ने युगों-युगों में
जिस सभ्यता का निर्माण किया है वही उसके जीवन की
श्वास-प्रश्वास है। बिना संस्कृति के जन की कल्पना कबन्धमात्र है;
संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है। संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है। राष्ट्र के समग्र रूप में भमि और जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से विरहित कर दिए जाएँ तो राष्ट्र का लोप समझना चाहिए। जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है। संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है। ज्ञान और कर्म दोनों के पारस्परिक प्रकाश की संज्ञा संस्कृति है। भूमि पर बस्ने वाले जन ने ज्ञान के क्षेत्र में जो सोचा है और कर्म के क्षेत्र में जो रचा है, दोनों के रूप में हमें राष्ट्रीय संस्कृति के दर्शन मिलते हैं। जीवन के विकास की युक्ति ही संस्कृति के रूप में प्रकट होती है। प्रत्येक जाति अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ इस युक्ति को निश्चित करती है और उससे प्रेरित संस्कृति का विकास करती है। इस दृष्टि से प्रत्येक जन की अपनी-अपनी भावना के अनुसार पृथक्-पृथक् संस्कृतियाँ राष्ट्र में विकसित होती हैं, परन्तु उन सबका मूल-आधार पारस्परिक सहिष्णुता और समन्वय पर निर्भर है।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) लेखक के अनुसार राष्ट्र का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग क्या है?
उत्तर लेखक ने भूमि एवं जन के बाद राष्ट्र का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग जन की संस्कृति को बताया है। मनुष्य ने युगों-युगों से जिस सभ्यता का निर्माण किया है, वह राष्ट्र के लोगों के लिए जीवन की श्वास के समान महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि संस्कृति के अभाव में राष्ट्र के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिहन लग सकता
(ii) संस्कृति से क्या अभिप्राय है? ।
उत्तर संस्कृति मनुष्य के मस्तिष्क से निर्मित वह व्यवस्था है, जिसके आधार पर परस्पर सह-अस्तित्व रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में विचारों, भावनाओं संवेदनाओं, मूल्यों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं का एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान होता है तथा सामूहिक जीवन सम्भव हो पाता है।
(iii) राष्ट्र की उन्नति में संस्कृति का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर राष्ट्र की उन्नति एवं विकास में संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि
संस्कृति के विकास एवं अभ्युदय के फलस्वरूप राष्ट्र के लोगों के मस्तिष्क का विकास होता है, जिससे राष्ट्र की उन्नति एवं वृद्धि सम्भव हो पाती है।
(iv) जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है’ से लेखक का क्या अभिप्राय है?
उत्तर जिस प्रकार वृक्ष का सम्पूर्ण सौन्दर्य, महिमा उसके पुष्प में ही निहित होती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य के जीवनरूपी वृक्ष का सम्पूर्ण सौन्दर्य, महिमा, सौरभ संस्कृति रूपी पुष्प में निहित होता है। जीवन के गौरव, चिन्तन, मनन और सौन्दर्य बोध में संस्कृति ही प्रतिबिम्बित होती है।
(v) ‘विटप’ तथा ‘पुष्प’ शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए।
उत्तर विटप – वृक्ष, पेड़, वट पुष्प – फूल, कुसम. सममा
- जंगल में जिस प्रकार अनेक लता, वृक्ष और वनस्पति अपने अदम्य भाव से उठते हुए पारस्परिक सम्मिलन से अविरोधी स्थिति प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्रीय जन अपनी संस्कृतियों के द्वारा
एक-दूसरे के साथ मिलकर राष्ट्र में रहते हैं। जिस प्रकार जल के
अनेक प्रवाह नदियों के रूप में मिलकर समुद्र में एकरूपता प्राप्त
करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्रीय जीवन की अनेक विधियाँ राष्ट्रीय
संस्कृति में समन्वय प्राप्त करती हैं। समन्वययुक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखदायी रूप है। साहित्य, कला, नृत्य, गीत, अमोद-प्रमोद अनेक रूपों में राष्ट्रीय जन अपने-अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं। आत्मा का जो विश्वव्यापी आनन्द भाव है, वह इन विविध रूपों में साकार होता है। यद्यपि बाह्य रूप की दृष्टि से संस्कृति के ये बाहरी लक्षण अनेक दिखाई पड़ते हैं, किन्तु आन्तरिक आनन्द की दृष्टि से उनमें एकसूत्रता है। जो व्यक्ति सहृदय है, वह प्रत्येक संस्कृति के आनन्द-पक्ष को स्वीकार करता है और उससे आनन्दित होता है। इस प्रकार की उदार भावना ही विविध जनों से बने हुए राष्ट्र के लिए स्वास्थ्यकर है।
दिए गए गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) लेखक के अनुसार किसी राष्ट्र का सुखद जीवन किस भावना पर निर्भर करता है?
उत्तर लेखक के अनुसार किसी राष्ट्र का सुखद जीवन पारस्परिक सौहार्द्र एवं एकता की भावना पर निर्भर करता है। जिस प्रकार जंगल में अनेक लताएँ, पेड़-पौधे तथा वनस्पतियाँ सामूहिक रूप से रहते हैं, उसी प्रकार एक देश में अनेक संस्कृतियाँ हो सकती हैं, परन्तु उन सबका अस्तित्व परस्पर मेल-जोल एवं एकता की भावना में निहित होता है।
(ii) राष्ट्र के अस्तित्व का आधार क्या है?
उत्तर राष्ट्र के अस्तित्व के लिए भाषा, धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग आदि के भेदभावों को भुलाकर अनेकता में एकता की भावना का परिचय देना चाहिए। यही राष्ट्र के अस्तित्व का मुख्य आधार है।
(iii) संस्कृति किस प्रकार जीवन को आनन्द प्रदान करती है?
उत्तर संस्कृति जीवन को आनन्द प्रदान करती है और उस आनन्द को मनुष्य अपने मानसिक भावों के रूप में साहित्य, कला, नृत्य, गीत आदि माध्यमों से व्यक्त करते हैं। अर्थात् इन संस्कृतियों का स्तर अनेक रूपों में मुखरित होता है।
(iv) विविध संस्कृतियों वाले राष्ट्र की एकसूत्रता के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर विविध संस्कृतियों वाले राष्ट्र की सभी संस्कृतियाँ बाहरी दृष्टि से देखने पर अलग अलग दिखाई देती हैं, किन्तु इनके अन्दर मूल रूप में एक ही सूत्र अर्थात् आत्मा होती है, जो सम्पूर्ण राष्ट्र की मिली-जुली संस्कृति को मुखरित करती है। इस प्रकार किसी राष्ट्र के सबल अस्तित्व के लिए इस प्रकार की एकसूत्रता आवश्यक है।
(v) राष्ट्रीय, आनन्दित शब्दों में प्रयुक्त प्रत्यय छाँटकर लिखिए।
उत्तर राष्ट्रीय – (ईय) (प्रत्यय) आनन्दित – इत (प्रत्यय)
- गाँवों और जंगलों में स्वच्छन्द जन्म लेने वाले लोकगीतों में, तारों के नीचे विकसित लोक-कथाओं में संस्कृति का अमिट भण्डार भरा हुआ है, जहाँ से आनन्द की भरपूर मात्रा प्राप्त हो सकती है। राष्ट्रीय संस्कृति के परिचयकाल में उन सबका स्वागत करने की आवश्यकता है। पर्वजों ने चरित्र और धर्म-विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में जो कुछ भी पराक्रम किया है. उस सारे विस्तार को हम . गौरव के साथ धारण करते हैं और उसके तेज को अपने भावी जीवन में साक्षात् देखना चाहते हैं। यही राष्ट्र-संवर्धन का स्वाभाविक प्रकार है। जहाँ अतीत वर्तमान के लिए भार रूप नहीं है, . जहाँ भूत वर्तमान को जकड़कर नहीं रखना चाहता वरन् अपने वरदान से पुष्ट करके उसे आगे बढ़ाना चाहता है, उस राष्ट्र का हम स्वागत करते हैं।
उपर्युक्त गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) संस्कृति के वाहक एवं संरक्षक के रूप में लेखक ने किसे प्रस्तुत किया है?
उत्तर लोकगीतों और लोक कथाओं को लेखक ने संस्कृति का वाहक एवं संरक्षक के रूप में प्रस्तुत किया है, क्योंकि ये लोकगीतों एवं लोक कथाओं में उनके आचार-विचार, सभ्यता, रीति-रिवाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा यही हमारी संस्कृति का भण्डार होती है। .
(ii) लेखक के अनुसार राष्ट्र की धरोहर क्या है?
उत्तर लेखक के अनुसार हमारे पूर्वजों ने चरित्र, धर्म-विज्ञान, साहित्य, कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लगन, परिश्रम एवं बुद्धि के बल पर जो कुछ भी प्राप्त किया, वही राष्ट्र की धरोहर है।
(iii) एक राष्ट्र की उन्नति कब सम्भव हो सकती है?
उत्तर एक राष्ट्र की स्वाभाविक उन्नति तभी सम्भव है. जब राष्ट्र के लोग प्राचीन इतिहास से जुड़कर भावी उन्नति की दिशा में प्रयास करें। ऐसा राष्ट्र प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उनकी उन्नति की दिशा को प्रशस्त करता है।
(iv) हम किस भावना के माध्यम से अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं?
उत्तर हम अपनी प्राचीनता के प्रति गौरव की भावना के माध्यम से अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं, क्योंकि यह भावना हमारे अन्तर्मन में प्रगति हेत एक प्रबल आकांक्षा उत्पन्न करती है कि हम इस गौरव को अपने जीवन में उतारकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए प्रयासरत् रहें।
(v) संवर्धन’ शब्द का सन्धि विच्छेद करते हुए इसमें प्रयुक्त सन्धि का नाम भी लिखिए।
उत्तर ‘सम् + वर्धन’= संवर्धन। यहाँ व्यंजन सन्धि प्रयुक्त हुई है।
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