UP Board exam सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय – परिचय – मैंने आहुति बनकर देखा/हिरोशिमा |
Board | UP Board |
Text book | NCERT |
Subject | Sahityik Hindi |
Class | 12th |
हिन्दी पद्य- | सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय / मैंने आहुति बनकर देखा/हिरोशिमा |
Chapter | 10 |
Categories | Sahityik Hindi Class 12th |
website Name | upboarmaster.com |
संक्षिप्त परिचय सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
नाम | सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ |
जन्म | 1911 ई. में कुशीनगर, जिला-देवरिया, उत्तर प्रदेश |
पिता का नाम | पण्डित हीरानन्द शास्त्री |
शिक्षा | पंजाब से मैट्रिक उत्तीर्ण, मद्रास से इण्टर (विज्ञान में) तत्पश्चात् लाहौर से बी.एस.सी. एवं एम.ए. पूर्वार्द्ध (अंग्रेजी से) की परीक्षा उत्तीर्ण की। |
कृतियाँ | काव्य संग्रह-भग्नदूत, चिन्ता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षणभर, बावरा अहेरी, आँगन के द्वार, कितनी नावों में कितनी बारा। कहानी संग्रह विपथगा, परम्परा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, तेरे प्रतिरूप, अमर वल्लरी। उपन्यास शेखर एक जीवनी (दो भाग), नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी। निबन्ध रचना सब रंग कुछ राग, आत्मनेपद, लिखि कागद कोरे। डायरी भवन्ती, अन्तरा, शाश्वती। आलोचना हिन्दी साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य त्रिशंकु। |
उपलब्धियाँ | अन्तर्राष्ट्रीय ‘गोल्डन रीथ’ पुरस्कार सहित साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। |
मृत्यु | 1987 ई. |
जीवन परिचय एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ।
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जन्म 7 मार्च, 1911 को उत्तर । प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर में हुआ था। वत्स गोत्रीय सारस्वत ब्राह्मण वंशी इनके पिता पण्डित हीरानन्द शास्त्री पुरातत्त्व अधिकारी थे। पंजाब से मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा पास करने के बाद इन्होंने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज से इण्टर की पढ़ाई पूर्ण की। तत्पश्चात् लाहौर के फॉर्मन कॉलेज से बी.एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण कर इसी कॉलेज में एम.ए. अंग्रेजी में प्रवेश
लिया, फिर स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़ने के कारण इन्होंने केवल पूर्वार्द्ध तक की ही पढ़ाई पूरी की। इन्होंने स्वाध्याय से ही अंग्रेजी, हिन्दी, फारसी, बांग्ला और संस्कृत साहित्य का गहन अध्ययन किया। स्वतन्त्रता संग्राम व क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल रहने के कारण इन्हें 4 वर्षों तक कारावास में तथा 2 वर्षों तक नजरबन्द रखा गया। वर्ष 1936-37 के दौरान अज्ञेय ने ‘सैनिक’ एवं ‘विशाल भारत’ नामक पत्रिकाओं का सम्पादन किया। इन्होंने इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ पत्रिका निकाली। इन्हें ‘दिनमान’ साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी पत्र वाक् तथा एवरीमैंस पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन करने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। साहित्य एवं संस्कृति को बढ़ावा दिए जाने के उद्देश्य से इन्होंने ‘वत्सलनिधि’ नामक न्यास की स्थापना की। ब्रिटिश सेना और आकाशवाणी में अपनी सेवा देने वाले इस साहित्यकार ने जोधपर विश्वविद्यालय तथा कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया। अजेय ने कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, यात्रा वृत्तान्त, संस्मरण, डायरी आदि साहित्य की अनेक विधाओं में लेखन कार्य किया। अन्तर्राष्ट्रीय ‘गोल्डन रीथ’ परस्कार प्राप्त करने वाले इस महान् रचनाकार को ‘आँगन के दार साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर भारतीय। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अज्ञेय उन रचनाकारों में से हैं, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी-साहित्य को एक नया आयाम, नया सम्मान एवं नया गौरव प्रदान किया। हिन्दी साहित्य को आधुनिक बनाने का श्रेय अज्ञेय को जाता है।
हिन्दी के इस महान् विभूति का 4 अप्रैल, 1987 को नई दिल्ली में देहावसान हो गया।
साहित्यिक गतिविधियाँ
अज्ञेय ने जब लेखन कार्य शुरू किया था, तब प्रगतिवादी आन्दोलन चरम-सीमा पर था। छायावादी प्रभाव से मुक्त होती कविताओं में बाहरी जगत से नाता जोड़ने की व्याकुलता नजर आने लगी थी। तार सप्तक (वर्ष 1943) के माध्यम से अज्ञेय ने प्रयोगवादी काव्य आन्दोलन छेड़ दिया। सात प्रयोगवादी कवियों की रचनाएँ इस
काव्य संकलन में संग्रहित हैं। इस संकलन में मानवीय भावनाओं के साथ-साथ प्रकृति का मानवीकरण कर उसकी संवेदनाओं को भी सहज बोलचाल की भाषा में अभिव्यक्त किया गया है। इस नवीन काव्यधारा के प्रवर्तक अज्ञेय को तत्कालीन बद्धिजीवियों का विरोध भी झेलना पड़ा। पश्चिमी-काव्य शिल्प की नकल करने का आरोप लगने के पश्चात् । अज्ञेय ने प्रयोगवादी आन्दोलन को जारी रखते हुए दूसरे सप्तक और फिर तीसरे सप्तक का प्रकाशन भी किया। इन युगान्तरकारी काव्य संकलनों का सम्पादन कर अज्ञेय ने निश्चय ही साहित्य के क्षेत्र में भारतेन्दु के पश्चात् एक-दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया है।
कृतियाँ
अज्ञेय की साहित्यिक रचनाओं का संसार अति विस्तृत है। इन्होंने साहित्य की गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में भरपर लेखन कार्य किया। इनकी रचनाओं में कविता संग्रह भग्नदत, चिन्ता, इत्यलम, हरी घास पर क्षणभर, बावरा अहेरी, इन्द्रधनुष रौन्दे हुए थे, आँगन के द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, अरी ओ करुणामय
प्रभामय। कहानी संग्रह विपथगा, परम्परा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, तेरे ये प्रतिरूप, अमर वल्लरी।
उपन्यास शेखर: एक जीवनी (दो भाग), नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी।। निबन्ध संग्रह सब रंग और कुछ राग, आत्मनेपद, लिखि कागद कोरे। ।नाटक उत्तर प्रियदर्शी।यात्रा वृत्तान्त अरे! यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली। डायरी भवन्ती, अन्तरा, शाश्वती। संस्मरण स्मृति लेखा। आलोचना हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, त्रिशंकु। अंग्रेजी काव्य कति प्रिजन डेज एण्ड अदर पीयम्स प्रमुख हैं। अज्ञेय की लगभग समग्र काव्य-रचनाएँ ‘सदानीरा’ (भाग-1 एवं भाग-2) तथा सारे निबन्ध ‘केन्द्र और परिधि’ नामक ग्रन्थ में संकलित हैं।
काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष
1 मानवतावादी दृष्टिकोण इनका दृष्टिकोण मानवतावादी था। इन्होंने अपने सूक्ष्म कलात्मक बोध, व्यापक जीवन-अनुभूति, समृद्ध कल्पना-शक्ति तथा सहज लेकिन संकेतमयी अभिव्यंजना द्वारा भावनाओं के नूतन एवं अनछुए रूपों को उजागर किया।
2. व्यक्ति की निजता को महत्त्व अज्ञेय ने समष्टि को महत्त्वपूर्ण मानते हए भी व्यक्ति की निजता या महत्ता को अखण्डित बनाए रखा। व्यक्ति के मन की गरिमा को इन्होंने फिर से स्थापित किया। ये निरन्तर व्यक्ति के मन के विकास की यात्रा को महत्त्वपूर्ण मानकर चलते रहे।
3. रहस्यानुभूति अज्ञेय ने संसार की सभी वस्तुओं को ईश्वर की देन
माना है तथा कवि ने प्रकृति की विराट सत्ता के प्रति अपना सर्वस्व
अर्पित किया है। इस प्रकार अज्ञेय की रचनाओं में रहस्यवादी अनुभूति की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है।
4. प्रकृति चित्रण अज्ञेय की रचनाओं में प्रकृति के विविध चित्र मिलते हैं, उनके काव्य में प्रकृति कभी आलम्बन बनकर चित्रित होती है, तो कभी उद्दीपन बनकर। अज्ञेय ने प्रकृति का मानवीकरण करके उसे प्राणी की भाँति अपने काव्य में प्रस्तुत किया है। प्रकृति मनुष्य की ही तरह व्यवहार करती दृष्टिगोचर होती है।
कला पक्ष
1. नवीन काव्यधारा का प्रवर्तन इन्होंने मानवीय एवं प्राकृतिक जगत
के स्पन्दनों को बोलचाल की भाषा में तथा वार्तालाप को स्वगत शैली में व्यक्त किया। इन्होंने परम्परागत आलंकारिकता एवं लाक्षणिकता के आतंक से काव्यशिल्प को मुक्त कर नवीन काव्यधारा का प्रवर्तन किया।
2. भाषा इनके काव्य में भाषा के तीन स्तर मिलते हैं
(i) संस्कृत की परिनिष्ठित शब्दावली
(ii) ग्राम्य एवं देशज शब्दों का प्रयोग
(iii) बोलचाल एवं व्यावहारिक भाषा
3. शैली इनके काव्य में विविध काव्य शैलियाँ; जैसे—छायावादी
लाक्षणिक शैली, भावात्मक शैली, प्रयोगवादी सपाट शैली, व्यंग्यात्मक शैली, प्रतीकात्मक शैली एवं बिम्बात्मक शैली मौजूद हैं।
4. प्रतीक एवं बिम्ब अज्ञेय जी के काव्य में प्रतीक एवं बिम्ब योजना
दर्शनीय है। इन्होंने बड़े सजीव एवं हृदयहारी बिम्ब प्रस्तुत किए तथा
सार्थक प्रतीकों का प्रयोग किया।
5. अलंकार एवं छन्द इनके काव्य में उपमा अलंकार सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण है। इसके साथ-साथ रूपक, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय भी प्रयुक्त हुए हैं। इन्होंने मुक्त छन्दों का खुलकर प्रयोग किया है। इसके अलावा गीतिका, बरवै, हरिगीतिका, मालिनी, शिखरिणी आदि छन्दों का भी प्रयोग किया।
हिन्दी साहित्य में स्थान
अज्ञेय जी नई कविता के कर्णधार माने जाते हैं। इन्होंने काव्य जगत् में नए-नए प्रयोग किए हैं। यही कारण है कि इन्हें प्रयोगवादी काव्यधारा का प्रर्वतक माना जाता है। ये प्रत्यक्ष का यथावत् चित्रण करने वाले सर्वप्रथम साहित्यकार थे। देश और समाज के प्रति इनके मन में अपार वेदना थी। ‘नई कविता’ के जनक के रूप में इन्हें सदा याद किया जाता रहेगा।
पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या
मैंने आहुति बनकर देखा
मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरु नन्दन-कानन का फूल बने?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रान्तर का ओछा फूल बने?
मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करूं-मेरा ऊँचा प्रासाद बने?
या पात्र जगत् की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने? |
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
शब्दार्थ दुर्धर-कठिन; जीवन-मरु-जीवनरूपी रेगिस्तान; नन्दन कानन- देवताओं का वन; तीखा-तेज, नुकीला; मर्यादा-गरिमा; प्रान्तर-उपवन; ओछा-तुच्छ; ओट-आड़विजय-जीत; प्रासाद-महल; पात्र-योग्य; जगत्-संसार; पथ-मार्ग प्रशस्त-प्रशंसनीय, उत्तम, विकल-व्याकुल; नेतृत्व-अगुआई, संचालन करना; परवाह-चिन्ता।।
सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित
साच्चदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित ‘मैंने आहुति बनकर देखा’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में मनुष्य जीवन की सार्थकता बताते हुए कवि स्पष्ट करता है कि दु:ख के बीच पीडा सहकर अपना मार्ग-प्रशस्त करने वाला तथा दूसरो की पीड़ा हरकर उनमें प्रेम का बीज बोने वाला व्यक्ति ही वास्तविक जीवन जीता है।
व्याख्या कवि स्पष्ट कहता है कि वह अपने जीवन में किसी भी प्रकार के । कष्टों से छुटकारा पाने का आकांक्षी नहीं है। वह ऐसा बिल्कुल नहीं चाहता है कि उसके जीवन का सूखा रेगिस्तान नन्दन कानन अर्थात् देवताओं के वन के समान सदैव खिले रहने वाले पुष्पों से महक उठे, बल्कि वह तो अपने जीवन में दुःखों एवं कष्टों का आकांक्षी है। कवि का मानना है कि जिस प्रकार काँटे
की श्रेष्ठता उपवन के तुच्छ फल में परिवर्तित हो जाने में नहीं, वरन् अपने कठोरपन एवं नुकीलेपन में निहित है, उसी प्रकार जीवन की सार्थकता संघर्ष एवं दुःखों से लड़ने में है। कवि कहता है कि उसने कभी ऐसी चाह नहीं की कि वह युद्ध-भूमि से बिना कोई चोट खाए लौट आए, क्योंकि रण में खाई चोटें तो योद्धा का श्रृंगार होती हैं।
कवि सदैव अपने प्यार का प्रतिफल भी नहीं चाहता और न ही वह
विश्वविजेता बनना चाहता है। वह दुनिया के वैभव एवं सुविधाओं का भी आकांक्षी नहीं है। कवि अपने जीवन में इतना महान् भी नहीं बनना चाहता है। कि लोग हमेशा उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखें, लोग उसे सम्मान एवं आदर के भाव से निहारें। वह यह भी नहीं चाहता है कि उसके जीवन का मार्ग हमेशा प्रशस्त रहे। अर्थात उसके द्वारा किए गए कार्यों की सदा प्रशंसा ही हो, उसे आलोचना न सहनी पड़े। सफलता एवं श्रेष्ठता से परिपूर्ण जीवन की भी कवि का कामना नहीं है। कवि की यह भी आकांक्षा नहीं है कि आज उसे जो सबका नेतृत्व करने का सुअवसर प्राप्त है, वह सदा से उसके साथ रहे अर्थात भविष्य में न छिने। वस्तुत: कवि स्वयं को किसी भी ऐसी आदर्श स्थिति से वंचित रखना पाहता है, जिसका सामान्यतया अधिकांश लोग कामना करते हैं। वह स्वयं
को, अपने जीवन को एक ऐसे सामान्य व्यक्ति के जीवन के रूप में जीने के लिए प्रस्तुत करना चाहता है, जो परहित की चिन्ता से व्याकुल हो, जो दूसरों के दुःख को अपना समझकर उसे दूर करने की कोशिश करे, जो अपने देश एवं समाज के हितों की पूर्ति करने में काम कर सके।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
(i) प्रस्तुत पद्यांश में दुःख को सुख की तरह, असफलता को सफलता की तरह और हार को जीत की तरह स्वीकार कर कार्य-पथ पर अडिग होकर चलने का भाव व्यक्त किया गया है।
(ii) रस शान्त
कला पक्ष
भाषा साहित्यिक खड़ीबोली शैली प्रतीकात्मक ।
छन्द मुक्त अलंकार अनुप्रास, उपमा एवं रूपक
गुण प्रसाद शब्द शक्ति अभिधा एवं लक्षणा
भाव साम्य माखनलाल चतुर्वेदी रचित निम्नलिखित कविता में उपरोक्त पद्यांश से भाव साम्यता है-
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गँथा जाऊँ.
चाह नहीं प्रेमीमाला में बिन्ध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ में देना तुम फेंका
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक।
2. मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने।
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन-कारी हाला है
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बनकर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!
शब्दार्थ जनपद-राज्य विशेष का क्षेत्र, नगरः गति-रोधक शल-गति को रोकने वाली पीड़ा; यत्न-उपाय; अवसाद-दुःख; कटु-कड़वा; सम्मोहन-कारी मोहक; हाला-मदिरा, शराब; विदग्ध-कष्ट सहने वाला, जला हुआ; आहति यज्ञ में अग्नि को समर्पित की जाने वाली वस्तु; यज्ञ-हवन-पूजन युक्त एक वैदिक कृत्य; ज्वाला-अग्नि।
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग प्रस्तत पद्यांश में कवि कहता है कि जीवन की वास्तविक सार्थकता कष्टो, विघ्नबाधाओं तथा विरोधी परिस्थितियों के साथ संघर्ष करने में निहित है।
व्याख्या कवि कहता है कि मुझे अपने जनपद अर्थात अपने क्षेत्र की धूल बन जाना स्वीकार है, भले ही उस धूल का प्रत्येक कण मुझे जीवन में आगे बढ़ने से रोके। और मेरे लिए पीड़ादायक बन जाए। इस प्रकार, यहाँ कष्ट सहकर भी मातृभूमि की। सेवा करने या उसके काम आ जाने ही चाह व्यक्त की गई है।
कवि का कहना है कि हम अपना कर्त्तव्य समझ कर जिसका पालन-पोषण करते हैं, जिस पर अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं, उस श्रम, त्याग और आत्मीयता का प्रतिफल केवल दुःख, उदासी और अश्रु के रूप में कदापि प्राप्त नहीं हो सकता अर्थात् हमें कर्मों के परिणामों की चिन्ता छोड़ सदा कर्तव्य-पथ । पर चलते रहना चाहिए। अन्ततः परिणाम सकारात्मक ही होता है। कवि आगे कहता है कि प्रेम को जीवन के अनुभव का कड़वा प्याला मानने
वाले लोग सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखते और वे मानसिक रूप से विकृत होते हैं, किन्तु वे लोग भी चेतनाविहीन निर्जीव की भाँति ही हैं, जिनके लिए प्रेम चेतना लुप्त करने वाली मदिरा है, क्योंकि ऐसे लोग प्रेम की वास्तविक अनुभूति से अनभिज्ञ रह जाते हैं। वास्तव में प्रेम तो मानवीय चेतना का संचार करने वाली संजीवनी बूटी के समान है। कवि कहता है कि उसने अनेक बाधाओं एवं कठिनाइयों की आग में जलकर जीवन के अन्तिम रहस्य को समझ लिया है। जब वह स्वयं आहुति बना, तब उसे प्रेमरूपी यज्ञ की ज्वाला का पवित्र कल्याणकारी रूप दिखाई दिया। विभिन्न कठिनाइयों एवं बाधाओं को पार करके ही वह आज विकास एवं
प्रगति के इस शिखर पर पहुंचा है।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
(i) प्रस्तुत पद्यांश में जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने तथा त्याग, परिश्रम व स्नेहपूर्वक जीने की इच्छा व्यक्त की गई है।
(ii) रस शान्त
कला पक्ष
भाषा साहित्यिक खड़ीबोली शैली प्रतीकात्मक
छन्द मुक्त अलंकार पुनरुक्तिप्रकाश एवं अनुप्रास
गुण प्रसाद शब्द शक्ति लक्षणा
3. मैं कहता हूँ मैं बढ़ता हूँ मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी-सा और उमड़ता हूँ
मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!
भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार-सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने!
शब्दार्थ नभ_आकाश; चोटी–शिखर; ललकार-चुनौती; असि तलवार; निर्मम कठोर रण-यद्ध वार आक्रमण, आघात; मय-संसार:
स्वाहा अर्पित; अंगार-आग; दुर्निवार-कठिन, अति प्रभावी नीरव मौन।
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में जीवन के कठिन संघर्षों से हार न मानकर, उनसे उत्साहपूर्वक जूझने की प्रेरणा दी जा रही है।
व्याख्या कवि धूल से प्रेरणा लेते हुए कहता है कि जिस प्रकार धूल
लोगों के पैरों तले रौन्दी जाती है, फिर भी हार नहीं मानती और उलटे आँधी का रूप धारण कर रौन्दने वालों को ही पीड़ा पहुँचाने लगती है, उसी प्रकार मैं भी जीवन के संघर्षों से पछाड़ खाकर कभी हार नहीं मानता और आशान्वित होकर उत्साहित होकर आगे की ओर बढ़ता ही जाता हूँ। यहाँ कहने का भाव है कि मुश्किलों का सामना करके ही सफलता को प्राप्त किया जा सकता है।
कवि की चाह है कि उसका संघर्षपूर्ण जीवन चुनौती देने की पुकार बन । जाए। जीवन में मिली असफलता उसके लिए तलवार की धार बनकर सफलता की राह को निष्कण्टक बना दे और जीवनरूपी कठिन संग्राम में रह-रह कर रुक जाना ही उसका प्रहर बन जाए। इस प्रकार, यहाँ कवि जीवन की बाधाओं व असफलताओं को ही अपनी शक्ति बनाकर और उनसे प्रेरणा लेकर सफलता प्राप्त करने के लिए संकल्पित दिखता है।’अन्ततः कवि ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करता हुआ कहता है कि मैं अपनी हार, असफलता सहित अपना सारा संसार ही तुम्हें समर्पित कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा तुम्हें आहुति रूप में समर्पित की गई सारी वस्तुएँ अग्नि बनकर मेरे
जीवनरूपी यज्ञ को पूर्ण करने में सहायक बन जाएँ। साथ ही साथ मेरा यह मौन प्रेम तेरी पुकार की तरह ही अति प्रभावशाली होकर परम विस्तार को प्राप्त कर ले।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
(i) यहाँ हार में जीत एवं असफलता में सफलता के बीज के छिपे होने का सच उद्घाटित किया गया है।
(ii) रस वीर
कला पक्ष
भाषा साहित्यिक खड़ीबोली शैली प्रतीकात्मक
छन्द मुक्त अलंकार उपमा, रूपक एवं पुनरुक्तिप्रकाश ।
गुण ओज शब्द शक्ति लक्षणा
हिरोशिमा
1. एक दिन सहसा सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं, नगर के चौक:
धूप बरसी, पर अन्तरिक्ष से नहीं
फटी मिट्टी से।
शब्दार्थ सहसा अचानक क्षितिज वह स्थान जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते हुए प्रतीत होते हैं।
सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में संकलित सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा रचित ‘हिरोशिमा’ शीर्षक कविता से उद्धृत है।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में हिरोशिमा के उस काले दिन का वर्णन किया गया है, जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने उस पर परमाणु बम गिराया था।
व्याख्या कवि कहता है कि एक दिन सूर्य अचानक निकल आया, पर वह आकाश में नहीं, बल्कि हिरोशिमा नगर के एक चौक पर निकला था। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर आकाश से धूप की वर्षा होने लगती है अर्थात् धूप चारों ओर फैल जाती है, उसी प्रकार उस दिन वहाँ की फटी हुई मिट्टी धूप बरसा रही थी। वस्तुतः यहाँ कवि ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिरोशिमा पर गिराए गए
परमाणु बम का उल्लेख किया है। नगर के जिस स्थान पर बम गिराया गया था, वहाँ की भूमि बड़े-से-गड्ढे में परिवर्तित हो गई थी, जिसे कविता में ‘फटी मिट्टी कहा गया है। बम विस्फोट के दुष्परिणामस्वरूप उस स्थान से काफी अधिक मात्रा में।
विषैली गैसें निकल रही थीं। उन गैसों के साथ निकले ताप से समस्त प्रकृति झुलस। रही थी। विस्फोट के दौरान निकली विकिरणें मानव के अस्तित्व को मिटा रही थीं।। प्रस्तुत पद्यांश में इन्हीं सब बातों का प्रतीकात्मक वर्णन किया गया है।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
(i) यहाँ परमाणु विस्फोट की भीषण घटना को सूर्योदय से सम्बन्धित कर कविन
अपने हृदय की पीड़ा को अभिव्यक्त किया है।
(ii) रस भयानक
कला पक्ष
भाषा खड़ीबोली
शैली प्रतीकात्मक छन्द मुक्त
अलंकार रूपकातिशयोक्ति एवं अन्त्यानुप्रास
गुण ओज शब्द शक्ति लक्षणा
2. छायाएँ मानव-जन की दिशाहीन,
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में,
वह बरसा सहसा
बीचो-बीच नगर के
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर, बिखर गए हों
दसों दिशा में!
कुछ क्षण का वह उदय-अस्त!
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी फिर।।
शब्दार्थ काल-सूर्य-मृत्युरूपी सूरज, अरे डण्डे, प्रज्वलित प्रकाशित।
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा हिरोशिमा । पर गिराए गए परमाणु बम का भीषण चित्र प्रस्तुत किया है।
व्याख्या हिरोशिमा पर किए गए परमाणु विस्फोट का उल्लेख करते हुए कवि कहता है कि जिस प्रकार आकाश में सूरज के उदित होने पर पूरी धरती पर मानव की छाया बनने लगती है, उसी प्रकार उस दिन भी हर तरफ मानवों की छविओं से पूरा वातावरण पटा हुआ था, पर वे छवियाँ दिशाहीन होकर यूँ ही धरती पर चारों ओर बिखरी पड़ी थीं। उस दिन का सूर्य प्रतिदिन की तरह पूरब दिशा से नहीं निकला था, वरन् उसका उदय अचानक ही हिरोशिमा के मध्य स्थित भूमि से हुआ था। उस सूर्य को देख ऐसा आभास हो रहा था, जैसे
काल अर्थात् मृत्युरूपी सूर्य रथ पर सवार होकर उदित हुआ हो और उसके पहियों के डण्डे टूट-टूट कर इधर-उधर दसों दिशाओं में जा बिखरे हों। परमाणु विस्फोट के रूप में सूर्य के उदित होने और उसके अस्त होने के वे दृश्य क्षणिक थे अर्थात वे प्राकतिक सूर्योदय और सर्यास्त की तरह धीरे-धीरे निश्चित समयानुसार आगे बढ़ने की प्रक्रिया के बन्धन में बन्धे न थे और न ही उन दोनों दृश्यों के मध्य दिनभर का फासला ही था। यहाँ परमाणु विस्फोट के
सन्दर्भ में सर्य के उदित होने का अर्थ है विस्फोट के दौरान अत्यधिक मात्रा में प्रकाश और ताप का निकलना और सूर्य के अस्त होने का अर्थ है विस्फोट के बाद अत्यधिक मात्रा में निकले धुआँ के कारण वातावरण में उत्पन्न अँधेरा। कवि कहता है कि एक साथ सूयोदय और सूर्यास्त का आभास दिलाने वाला मानवीय गतिविधियों के दष्परिणाम स्वरूप उत्पन्न दोपहर का वह ज्वलन्त भण अपने ताप से वहाँ के दश्यों को भी सोख लेने वाला था अर्थात परमाण विस्फोट रूपी वह सूर्य अपने हानिकारक प्रभाव से सब कुछ जला कर राख कर देने वाला था।
काव्य-सौन्दर्य
भाव पक्ष
(i) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से परमाणु विस्फोट का उल्लेख
अभिशाप के रूप में दर्शाया गया है।
(ii) रस भयानक
कला पक्ष
भाषा खड़ीबोली शैली प्रतीकात्मक
छन्द मुक्त अलंकार अनुप्रास, रूपक, उत्प्रेक्षा एवं उपमा
गुण ओज शब्द शक्ति लक्षणा
3. छायाएँ मानव-जन की,
नहीं मिटीं लम्बी हो-होकरः
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखीं हैं,
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर।।
मानव का रचा हुआ सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।
शब्दार्थ भाप वाष्प; गच फर्श; साखी साक्ष्य, प्रमाण।
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में द्वितीय विश्वयुद्ध की उस भीषण तबाही का उल्लेख किया गया है, जिसका कारण था, अमेरिका द्वारा हिरोशिमा पर परमाणु बम। गिराया जाना।
व्याख्या कवि कहता है कि हिरोशिमा पर किए गए परमाणु विस्फोट के दुष्परिणाम स्वरूप उत्सर्जित विकिरणों और ताप ने मानवों को जलाकर वाष्प में बदल दिया, किन्तु उनकी छायाएँ लम्बी हो-होकर भी समाप्त नहीं हो पाईं। विकिरणों से झुलसे हुए वहाँ के पत्थरों तथा क्षतिग्रस्त हुई सड़कों की दरारों पर वे मानवीय छायाएँ आज भी विद्यमान हैं और मौन होकर उस भीषण त्रासदी की कहानी कह रही हैं। कवि आकाशीय सूर्य से मानव निर्मित इस सूर्य की तुलना करता हुआ कहता है कि आकाश का सूर्य हमारे लिए वरदान स्वरूप है, उससे हमें जीवन मिलता है, परन्तु मनुष्य रचित यह सूर्य अर्थात् परमाणु बम अति विध्वंसक है, क्योंकि इसने अपनी विकिरणों से मानव को वाष्प में परिणत कर उसकी जीवन लीला ही समाप्त कर दी। पत्थर पर विद्यमान मानव की छाया इस सच का जीता-जागता सबूत है। इस प्रकार यहाँ मानव को ही मानव के विध्वंसक का कारण देख कवि अत्यन्त मर्माहित है।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
(i) प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से मानव द्वारा विज्ञान के दुरुपयोग किए जाने पर दुःख जताया गया है, ताकि परमाणु बम गिराने जैसी मानव-विनाशी गलती की पुनरावृत्ति न होने पाए।
(ii) रस करुण
कला पक्ष
भाषा खड़ीबोली शैली प्रतीकात्मक
छन्द मुक्त अलंकार रूपक एवं रूपकातिशयोक्ति
गुण प्रसाद शब्द शक्ति लक्षणा
पद्यांशों पर अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्न उत्तर
प्रश्न-पत्र में पद्य भाग से दो पद्यांश दिए जाएंगे, जिनमें से किसी एक पर आधारित 5 प्रश्नों (प्रत्येक 2 अंक) के उत्तर देने होंगे।
मैंने आहति बनकर देखा
- मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरु नन्दन-कानन का फूल बने?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रान्तर का ओछा फूल बने?
मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ-मेरा ऊँचा प्रासाद बने?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार और रचना का नाम बताइए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी हैं और रचना ‘मैंने आहुति बनकर देखा है।
(ii) प्रस्तुत पद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि कैसा व्यक्ति वास्तविक जीवन जीता है?
उत्तर कवि ने मानव जीवन की सार्थकता बताते हुए स्पष्ट किया है कि दुःख के बीच पीड़ा सहकर अपना मार्ग प्रशस्त करने वाला तथा दूसरों की पीड़ा हरकर उनमें प्रेम का बीज बोने वाला व्यक्ति ही वास्तविक जीवन जीता है।
(iii) “काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है।” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर प्रस्तुत पंक्ति का आशय यह है कि जिस प्रकार काँटे की श्रेष्ठता उपवन के तुच्छ फल में परिवर्तित हो जाने में नहीं, वरन् अपने कठोरपन एवं नुकीलेपन में निहित है, उसी प्रकार जीवन की सार्थकता संघर्ष एवं दुःखों से लड़ने में है।
(iv) प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश में दु:ख को सुख की तरह, असफलता को सफलता की तरह और हार को जीत की तरह स्वीकार कर कार्य-पथ पर अडिग होकर चलने का भाव व्यक्त किया गया है।
(v) अनुकूल और नेतृत्व शब्दों में क्रमशः उपसर्ग एवं प्रत्यय बताइए।
उत्तर अनुकूल – अनु (उपसर्ग), नेतृत्व – त्व (प्रत्यय)।
2 मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने।
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन-कारी हाला है ।
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बनकर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!
मैं कहता हूँ मैं बढ़ता हूँ मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी-सा और उमड़ता हूँ
मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!
भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार-सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने!
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अपनी कैसी चाह (इच्छा) को व्यक्त किया है?
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश में कवि को अपने जनपद की धूल बन जाना स्वीकार है, भले ही उस धूल का प्रत्येक कण उसे जीवन में आगे बढ़ने से रोके और उसके लिए पीड़ादायक ही क्यों न बन जाए। इसके पश्चात् भी वह कष्ट सहकर भी । मातृभूमि की सेवा करने या उसके काम आ जाने की चाह व्यक्त करता है।
(ii) प्रेम की वास्तविक अनुभूति से कैसे लोग अनभिज्ञ रह जाते हैं?
उत्तर प्रेम को जीवन के अनुभव का कड़वा प्याला मानने वाले लोग सकारात्मक। दृष्टिकोण के नहीं होते, अपितु वे मानसिक रूप से विकत होते हैं, किन्तु व। लोग भी चेतना विहीन निर्जीव की भाँति ही हैं। जिनके लिए प्रेम की चेतना लुप्त । करने वाली मदिरा है, क्योंकि ऐसे लोग प्रेम की वास्तविक अनभति से अनभिज्ञ रह जाते हैं।
(iii) कवि ने धूल से क्या प्रेरणा ली है?
उत्तर कवि धूल से प्रेरणा लेते हए कहता है कि जिस प्रकार धल लोगों के पैरात रीदी जाती है, परन्तु वह हार न मानकर उल्टे आँधी के रूप में आकर वाले को ही पीड़ा पहुँचाने लगती है। उसी प्रकार मैं भी जीवन के संघषा, पछाड़ खाकर कभी हार नहीं मानता और आशान्वित व होकर आगे का बढ़ता चला जाता हूँ।
(iv) प्रस्तुत पद्यांश में निहित उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने जीवन में संघर्ष के महत्त्व पर बल दिया है। यदि हमारे समक्ष कोई जटिल समस्या आ जाए, तो हमें उसका सामना करते हुए उसका समाधान ढूँढना चाहिए। जो लोग इन समस्याओं का सामना करने से घबराते हैं, वास्तव में उनके जीवन को सार्थक नहीं कहा जा सकता।
(v) “इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने।” प्रस्तुत पंक्ति में। कौन-सा अलंकार है?
उत्तर प्रस्तुत पंक्ति में ‘पग’ शब्द की पुनरावृत्ति हुई है, अतः यहाँ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
हिरोशिमा
- एक दिन सहसा सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं, नगर के चौक;
धूप बरसी, पर अन्तरिक्ष से नहीं
फटी मिट्टी से।
छायाएँ मानव-जन की दिशाहीन,
सब ओर पड़ी-वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में,
वह बरसा सहसा .
बीचो-बीच नगर के
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर, बिखर गए हों
दसों दिशा में!
कुछ क्षण का वह उदय-अस्त!
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी फिर।।
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार और रचना का नाम बताइए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन
‘अज्ञेय’ है तथा यह अवतरण ‘हिरोशिमा’ कविता से अवतरित है।
(ii) प्रस्तुत पद्यांश में किस समय का वर्णन किया गया है?
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश में द्वितीय विश्वयुद्ध की उस भीषण तबाही का उल्लेख किया गया है, जब अमेरिका द्वारा हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराया गया था।
(iii) हिरोशिमा नगर में परमाण बम विस्फोट के परिणाम क्या हए?
उत्तर हिरोशिमा नगर के जिस स्थान पर बम गिराया गया था, वहाँ की भूमि बड़े-बड़े गड्ढों में परिवर्तित हो गई थी, जिसे फटी मिटटी
कहा गया है। वहाँ बहुत अधिक मात्रा में विषैली गैसें निकल रही थीं
और उससे निकलने वाले ताप से समस्त प्रकृति झुलस रही थी।
विस्फोट के दौरान निकली विकिरणें मानव के अस्तित्व को मिटा
रही थीं।
(iv) “काल-सूर्य के रथ के पहियों के ज्यों अरे टूट कर, बिखर गए
हों” पंक्ति से कवि का क्या आशय है?
उत्तर परमाणु विस्फोट के पश्चात् सूर्य का उदय प्रतिदिन की तरह पूर्व दिशा से नहीं हुआ था, वरन् उसका उदय अचानक ही हिरोशिमा के मध्य स्थित भूमि से हुआ था। उस सूर्य को देखकर ऐसा आभास हो रहा था जैसे काल अर्थात् मृत्युरूपी सूर्य रथ पर सवार होकर
उदित हुआ हो और उसके पहियों के डण्डे टूट-टूट कर इधर-उधर
दसों दिशाओं में जा बिखरे हों।
(V) ‘काल’ शब्द के तीन पर्यायवाची बताइए।
उत्तर | शब्द | पर्यायवाची | शब्द | पर्यायवाची |
काल | समय | क्षण | वक्ता |
- छायाएँ मानव-जन की,
नहीं मिटी लम्बी हो-होकर;
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखीं हैं,
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर।
मानव का रचा हुआ सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।
उपर्युक्त पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
(i) प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से मानव द्वारा विज्ञान के दुरुपयोग किए जाने पर दुःख जताया गया है, ताकि परमाणु बम गिराने जैसी मानव-विनाशी गलती की पुनरावृत्ति न हो पाए।
(ii) कवि ने आकाशीय सूर्य की तुलना मानव निर्मित सूर्य से किस प्रकार की है?
उत्तर कवि आकाशीय सूर्य से मानव निर्मित सूर्य की तुलना करते हुए कहता है कि आकाश का सूर्य हमारे लिए वरदान स्वरूप है, उससे हमें जीवन मिलता है, परन्तु मानव निर्मित सूर्य परमाणु बम अति विध्वंसक है, क्योंकि इसने अपनी विकिरणों से मानव को
वाष्प में परिणत कर उसकी जीवन लीला ही समाप्त कर दी।
(iii) “छायाएँ तो अभी लिखीं हैं झुलसे हुए पत्थरों पर” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर परमाणु विस्फोट के दुष्परिणाम स्वरूप उत्सर्जित विकिरणों ने मानव को जलाकर वाष्प में बदल दिया, किन्तु उनकी छायाएँ लम्बी होकर भी समाप्त नहीं हुई हैं। विकिरणों से झुलसे पत्थरों तथा क्षतिग्रस्त हुई सड़कों की दरारों पर, वे मानवीय छायाएँ आज भी
विद्यमान हैं और मौन होकर उस भीषण त्रासदी की कहानी कह रही हैं।
(iv) प्रस्तुत पद्यांश में कवि अत्यन्त मर्माहित क्यों हुआ है?
उत्तर प्रस्तुत पद्यांश में मानव जीवन की त्रासदी का वर्णन किया गया है। यहाँ मानव ही मानव के विध्वंस का कारण है। मानव के इसी दानव रूप को देखकर कवि अत्यन्त मर्माहित हो उठा है।
(v) प्रस्तुत पद्यांश में कौन-सा रस है?
उत्तर मानव जाति के विध्वंस के कारण शोक की स्थिति उत्पन्न हुई है। अतः प्रस्तुत पद्यांश में करुण रस है।
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